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पिता और पुत्र / ज्योति रीता

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जब तुम पिता के कंधे को
बिस्तर समझ
सुनहरे स्वप्न में खोए थे
पिता उस वक़्त
खुली आंखों से
तुम्हारे ललाट को
चूम रहे थे
सुग्गा, मैना, तितली
न जाने कितने पात्र थे जहन में
पिता बस तुममें ही
खुद को ढूँढ रहे थे
खाने का एक निवाला
जब तुम चबाते थे
पिता पूरी दुनिया की संतुष्टि
उसी में पा जाते थे
पूरे जहान के भीड़ में
एक स्थाई तुम्हारा ही प्रेम था
जो हर शाम खींच लाता था
पिता को
घर की ओर
तुम स्पष्ट दिखने वाले
आसमानी लकीर थे
जीवन के स्वर्णिम-पलों में
स्वर्ण मुद्रा-सा संजो रखा है
पिता ने अपने पलकों पर तुम्हें
तुम हमारे बीच एक पुल हो
जिससे होकर प्रेम
स्वच्छंद-तरंग-सा बहता है