http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE&feed=atom&action=historyपिता की मृत्यु से एक संवाद / कुमार विक्रम - अवतरण इतिहास2024-03-29T02:15:32Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%81_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE&diff=281170&oldid=prevLalit Kumar: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विक्रम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2020-08-11T13:23:35Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विक्रम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=कुमार विक्रम<br />
|अनुवादक=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
'''1'''<br />
पिता<br />
मुझे तुम्हारी मृत्यु<br />
अब बोर करने लगी है<br />
<br />
जब थी यह नयी नवीली<br />
तब नम व अश्रुपूर्ण आँखों से ही सही<br />
हमने किया इसका स्वागत बड़ी गर्मजोशी से<br />
साज-श्रृंगार, मान-सम्मान, आवभगत किया दिल खोलकर<br />
दौड़-दौड़कर हमने इसके सारे नखरे उठाए<br />
सर-आंखों पर बिठाया<br />
पर अब धीरे-धीरे यह हो रहा है आभास<br />
तुम्हारी मृत्यु को तुमसे नहीं है कोई सरोकार<br />
हमने समझा जैसे हम तुम्हारे हैं<br />
वैसे ही तुम्हारी मृत्यु भी तुम्हारी है<br />
और हमारा उससे सीधा गहरा रिश्ता है<br />
पर मृत्यु तो शाम में स्कूल में बजने वाली घंटी है<br />
वहाँ के दिनभर की शिक्षा-दीक्षा, खेल-कूद<br />
भविष्य के लिए बनाए गए सारे सपने<br />
उसके लिए बेमायने हैं<br />
मानो शरीर का कोई ऐसा अंग<br />
जो शरीर से बाहर है, विमुख है<br />
एक ऐसा हिस्सा जो शरीर के विलीन होने के बाद<br />
अपना वजूद जताने आता हो,<br />
<br />
एक सूदखोर साहूकार की तरह बही-खाता लेकर<br />
यह खड़ी हो गई है मेरे सामने<br />
मांगती है पल-पल का हिसाब<br />
<br />
'''2'''<br />
<br />
पिता<br />
तुम्हारी मृत्यु<br />
आश्चर्य है<br />
तुम्हें जानती-पहचानती नहीं!<br />
<br />
उसे क्या पता कि<br />
तुमने मुझे खुला छोड़ दिया था<br />
खुद मुझे घोड़े पर बिठाकर जंगल की अनिश्चितताओं में<br />
और तुम्हारी अदृश्य जोरदार तालिया पार्श्व से ही<br />
मुझे और मेरे घोड़े का मार्गदर्शन करती रही<br />
उत्साहित करती रहीं ?<br />
ये सब बातें तुम्हारी मृत्यु को पता नहीं<br />
वो तो कहती है जिस घोड़े पर बैठे हो<br />
वो तुम्हारे पिता ने कर्ज लेकर खरीदा था<br />
उसका हिसाब दो !<br />
उनकी जिन तालियों पर इतना फ़ख्र करते हो<br />
उन्हीं हथेलियों से खून की लपटें निकलती थीं<br />
आखिरकार काँटों के चप्पल पहनकर<br />
तालियाँ बजाना कोई खेल तो नहीं<br />
उन लपटों का मूल्य चुकाओ !<br />
<br />
मैं अचंभित हूँ<br />
कि कैसे तुम्हारी मत्यु को<br />
तुम्हारी शांत प्रवृत्ति तुम्हारे आचार-विचार<br />
तुम्हारे जीवन जीने की निष्काम प्रवृत्ति आदि की<br />
कोई जानकारी नहीं<br />
उसे तो पता ही नहीं कि जब घर में सैलाब आया था<br />
और उसके साथ बहकर आए<br />
कीड़े-मकौड़े, साँप-बिच्छु<br />
जो तुम्हारे शरीर से चिपक गए थे<br />
और तुम्हारा खून पी रहे थे<br />
तब भी बिना किसी वैमनस्य के<br />
तुम उन्हें वापस उनके घर पहुँचाने के रास्ते<br />
ढूँढते रहे, मुस्कुराकर कहते रहे कि<br />
ये अपने घर का रास्ता भूल गए हैं<br />
इन्हें इनके दु:ख से मुक्त करना है<br />
<br />
लेकिन मृत्यु खड़ी हो जाती है मेरे सामने<br />
किसी रंगदार की तरह<br />
जिसे हम सब डायन के रूप में जानते रहे<br />
कमर पर एक हाथ रख<br />
दूसरा हाथ मेरे सामने रखती है, कहती है<br />
उन कीड़े-मकौड़ों, साँप-बिच्छुओं को<br />
उनके घर वापिस पहुँचाने के लिए निकले तुम्हारे पिता<br />
रास्ते भर कई रंगदारों को हफ्ता देते निकले थे -<br />
वो पड़ोसियों-करीबियों के उलाहने<br />
सगे-संबंधियों के ताने<br />
अपने गिरते-पड़ते, टूटते बिखरते आदर्शों का शालीन बोझ<br />
कई ऐसे लोग जिनके लिए वो अब अछूत थे<br />
क्योंकि अब तुम्हारे पिता के बदन पर रेंगते थे कीट-पतंग<br />
उन लोगों का पान की दुकान पर<br />
अपनी बातचीत में मशगूल हो मुँह मोड़ना आदि<br />
जैसे पलों की कीमत चुकाओ!<br />
<br />
'''3'''<br />
<br />
पिता<br />
मैं ठिठकता हूँ, रूकता हूँ<br />
सोचता हूँ<br />
तुम्हारी मृत्यु तुमसे कितनी जुदा है<br />
बचपन में पाई-पाई का हिसाब माँगने वाली दाई<br />
माँ से लड़कर-झगड़कर<br />
दो बार पोंछा लगाने<br />
चार बार कटोरी-गिलास धोने<br />
महीना में एक बार उनकी बदन की मालिश करने की<br />
उलाहना देते हुए दस रुपया, बीस रुपया, पैंतीस रुपया<br />
लेकर गली में बड़बड़ाते हुए जाने वाली<br />
मकान खरीदते वक्त पिता के साथ घूमने वाला प्रॉपर्टी डीलर<br />
अपने कमीशन के लिए खिचखिच करने वाला<br />
जैसे कई चेहरे घूमते हैं मेरे सामने<br />
याद आते हैं अमीर घरानों के गरीब रिश्तेदार<br />
सुसंकृत, शिक्षित, संभ्रांत, यशस्वी पिताओं के<br />
अनपढ़, क्रूर, बेवकूफ व दिग्भ्रमित संतान<br />
बिजलीघरों की चमचमाती रोशनी के पीछे<br />
अंधकार में डूबा हुआ, सोया हुआ गाँव<br />
गंगनचुबी इमारतों के पाँवों पर रेंगती झोपड़पट्टियाँ<br />
एक स्लार्इड शो की तरह मेरी जेहन में उभरते हैं<br />
मैं सोचता हूँ<br />
शायद कमीशनखोर परछाईं-सी<br />
पिता की मृत्यु<br />
इतनी गरीब, भीखमंगी, क्रूर, बीमार और अंधकार में डूबी हुई-सी<br />
इसलिए दिखती है<br />
क्योंकि पिता के जीवन की संघर्षों की दिलेर गाथाएँ<br />
मूँछे ताने ताल ठोकते हुए<br />
दिव्यदीप्तिमान से दमकते हुए खड़े दिखते हैं<br />
<br />
'''4'''<br />
<br />
पिता<br />
मैं हतप्रभ हूँ<br />
और धीरे-धीरे समझ पा रहा हूँ<br />
बोरियत की परते कुछ हटाते हुए कि<br />
तुम्हारी मृत्यु<br />
मेरे और तुम्हारे बीच<br />
आकर खड़ी हो जाने वाली कोई बिचौलिया नहीं<br />
और न ही मृत्यु है कोई आखिरी पड़ाव<br />
या फिर जीवन के कई पड़ावों में एक पड़ाव<br />
बल्कि एक पूर्ण जीवन की अपूर्ण लेकिन अभिन्न शर्त है<br />
जो कदम-कदम पर, पल-पल पर घुली-मिली रहती है जीवन में<br />
ठीक उसी तरह<br />
जिस तरह जीवन की आकाँक्षाएँ पसरी रहती हैं<br />
मृत्युरूपी, मृतप्राय, मरणासन्न परिस्थितियों में<br />
जैसे बीमार के साथ-साथ अस्पतालों में घूमता उसका स्वस्थ भाई<br />
घर पर पड़े अपंग पिता का<br />
रेस की मैदान में तेज-तेज कदमों से दौड़ती हुई उसकी धाविका पुत्री<br />
<br />
पिता<br />
मैं तुम्हारी मृत्यु के दावों को<br />
अब सहसा सुनने लगा हूँ कुछ ध्यान से<br />
जिसका एक अंश एक भाव एक रूप<br />
खून-चूसते बिच्छुओं के रूप में<br />
साथ-साथ रहा बसा तुम्हारे जीवन के पलों में<br />
खिलखिलाती धूप में अचानक आए बादलों के अंधकार की तरह<br />
उन संतानों की तरह<br />
जिन्हें नदी की तरह पाल-पोसकर<br />
मुहाने तक ला खड़े करने के बाद<br />
जब समुद्र में कूदने को कहा गया<br />
तब घबराकर उन्होंने वापस मुख कर लिया<br />
और माँ-बाप के साथ डूबने-उभरने की ऊहापोह में कैद हो गये<br />
<br />
सचमुच समझने लगा हूँ कि<br />
हर रंगदार के बनने के पीछे<br />
होती है एक लंबी दर्दनाक अनकही-अनसुनी कहानी<br />
और अब मैं तैयार हो चुका हूँ<br />
तुम्हारी असहाय रंगदार मृत्यु के सारे उलाहनों को समझने को<br />
यह कहते हुए कि घोड़े आदि का कर्ज तत्काल चुकाता हूँ<br />
<br />
लेकिन घोड़े से उतरना नागवार है<br />
क्योंकि इससे उतरना<br />
पिता के मन से उतरना होगा<br />
जो शायद उनकी असल मृत्यु होगी<br />
<br />
''दोआबा, 2012''<br />
</poem></div>Lalit Kumar