भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता ने कहा था / चन्द्र प्रकाश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:10, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेटा यह आकाश तुम्हारा है
तब शायद वह
आकाश की ओर सधी गिद्ध-निगाहों से परिचित नहीं थे
पिता ने कहा था-
धरती पर पसरी हवा तुम्हारी है
हवा में बारूदी गन्ध
तब शायद पूरी तरह घुल नहीं पाई थी
पिता ने ही बताया था-
नदियों, झीलों, सागरों में लहराता हुआ
सारा जल मेरा है
तब शायद उन्हे
पानी के लिए होने वाली छीना-झपटी के बारे में
कुछ भी पता नहीं था

अपने आख़िरी दिनों में पिता ने
आकाश की ओर देखना छोड़ दिया था
खुली हवा में बैठना बन्द कर दिया था
और पानी पीने से मना कर दिया था

जाते-जाते
वह जान चुके थे
कुछ भी नहीं है हमारा
हवा पानी धूप सभी के
कुछ चुनिन्दा दावेदार हैं