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पिता से / अनुपम सिंह

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अब अपने नल में पानी बहुत कम आता है पिता
जब मैं छोटी थी झूल जाती नल के हत्थे से
तब चोटों और जिद्दी इच्छाओं के बीच
अन्तर नहीं कर पाती थी पिता
फिर, नल भी इतना गाढ़ कहाँ चलता था
उछलकर कूदती लोटा भर जाता पानी से
अब तो बरसात में भी, नल पानी छोड़ देता है
बरसात भी पहले जैसे कहाँ होती है पिता
 
अब अम्मा सूरजमुखी मिर्च नहीं लगातीं पिता
खेत की धूल आँगन तक आ जाती है
होली के दिन भैसें
तालाब में नहीं नहलाई जातीं
लड़के रात पिताओं की चोरी से
तालाब पार करने की बाजी नहीं हारते
अब तालाब भी चोरी से मिलने
दरवाज़े तक नहीं आता पिता
बारिश में आसमान से मछलियाँ नहीं गिरतीं
आसमान भी पहले जैसा पारदर्शी कहाँ रहा पिता

याद है !
जब पहले किसी साल बारिश नहीं होती
बच्चे इन्द्र से पानी माँगने जाते
द्वार-द्वार पानी गिरा
उसमे लोटते
इस तरह अपना प्रतिरोध दर्ज करते थे बच्चे

स्त्रियाँ नंगी होकर
आधी रात में हल चलाती
यह उनके प्रतिरोध की अपनी भाषा थी
कहते हैं, इन्द्र गौरैयाओं को भेजते थे दूत बनाकर
वे आतीं, धूल में नहाकर पानी का आगम दे जातीं

पर अब तो बच्चों का भी भ्रम टूट गया
इन्द्र पानी का देवता था ही नहीं
सच बताओ पिता!
तुमने इन्द्र की झूठी कहानियाँ क्यों सुनाई
धूल मे नहाती चिड़िया
पानी के लिए लोटते बच्चे
किनकी इच्छाओं का परिणाम हैं
 
ओह! माफ़ करें पिता
मैं भूल गई तुमसे पूछना
तुम्हारी जंघाओं में घाव कैसे
तुम मरने के बाद भी बूढ़े हो रहे हो
या फिर मेरी स्मृति में
अब क्यों तुम्हारे जाने की याद बहुत कम आती है पिता
 
ओह पिता !
मुझे जितना शोक तुम्हारे लिए है
उतना ही उन पेड़ों के लिए
जिनसे सूखी कुर्सियाँ और मेज़ें बनी
मैं शोक करती हूँ पिता !
आसमान में टँगी मछलियों
इन्द्र से गिड़गिड़ाते बच्चों और
नंगी औरतों के लिए