भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता / गौरव शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कहा यक्ष ने था कि युधिष्ठिर बतलाओ,
नभ से ऊँचा है कौन, खोज उत्तर लाओ।

तब 'नभ से ऊँचा पिता' युधिष्ठिर ने कहकर,
था दिया यक्ष को जो छोटा सटीक उत्तर।

वह हमें आज भी अद्भुत सीख सिखाता है,
सिर स्वतः पिता के चरणों में झुक जाता है।

जिसकी उँगली को पकड़ सीख चलना पाये,
जिसके कंधों पर बैठ देख दुनिया आये।

जिसके आगे हक समझ हाथ फैलाते थे,
जिससे कुछ पाकर फूले नहीं समाते थे।

घर चलता था जिसके जी तोड़ परिश्रम से,
जग में पहचान हमारी थी जिसके दम से।

जो हर आशा को पंख लगाया करता था,
ऊँचे-ऊँचे सपने दिखलाया करता था।

जो दुखी हुआ तो दर्द किसी से कह न सका,
मन ही मन आँसू पिये, मगर हारा न थका।

जो खड़ा रहा निर्भीक कठिन हालातों में,
साहस विराट दिखलाया झंझावातों में।

जिसकी लोहे-सी देह, वज्र-सी छाती है,
स्वयमेव जहाँ हर मुश्किल हल हो जाती है।

काया का रोम-रोम उसका आभारी है,
वह पिता हमारे पूजन का अधिकारी है।

वह पिता हम सभी के माथे का चंदन है,
उसकी आभा का कोटि-कोटि अभिनंदन है।