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पिया! मैं पुनि-पुनि पायँ परूँ / स्वामी सनातनदेव

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राग मुलतानी, तीन ताल 11.7.1974

पिया! मैं पुनि-पुनि पायँ परूँ।
विरहानल की दाझी प्रीतम! परसत बहुत डरूँ॥
अति सुकुमार विचारि प्यार सों परिछन सतत करूँ।
जियकों जरनि जरात कहो मैं कैसे तहाँ धरूँ॥1॥
कृपा-वारिसों सींचहु प्यारे! तो कछु धीर धरूँ।
नतरु वृथा ही कलपि-कलपि मिमि विरह-व्यथा उबरूँ॥2॥
हियमें लगी अनल-सी प्रीतम! कैसे कहा करूँ।
कबलौं यों जरि-जरि ही तन में पीड़ित प्रान धरूँ॥3॥
बहुत भई, नहिं सहन होत अब, मैं यह विनय करूँ।
दरस-सुधासों सोचहु प्यारे! तरसत नतरु मरूँ॥4॥