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पिये मौन बैठे रहते हो / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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पिये मौन बैठे रहते हो
कुछ तो समझो नब्ज समय की
शायद मेरा गीत
तुम्हारे संवेदन को
फिर दहका दे।

मेरी और तुम्हारे घर की
दूरी कुछ क़दमों की समझो
पर लगता है हम बरसों से
अलग-अलग नगरों के वासी
तुम मन्दिर के चक्कर लेकर
हनूमान चालीसा पढ़ते
हम छाती पर धरे पुस्तकें
पड़े-पड़े ले रहे उबासी
निपट अबोली
इस खिड़की से
ऐसी एक हवा चल जाए
खिले मोगरा द्वार तुम्हारे
मेरे घर तुलसी महका दे।
किसी मलय की
मदिर गन्ध ने
कभी प्यार से तुम्हें छुआ है?
कभी देहके तन्त्र बजे हैं
उल्लासित उद्वेग हुआ है?
घुँघरू के सरगम के स्वर पर
रात-रात मीरा नाची है
मोहन की पाती राधा ने
धड़कन पर धर कर बाँची है
मन्दिर की पूजा के भीतर
ऐसा कोई दीप जला है
अन्तःपट उजियारा कर दे
       प्राण ज्योति निर्झरी बहादे?