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पीड़ा-सुख / दीप्ति गुप्ता

क्यों पीड़ा से घबराता मन
क्यों कष्टों से कतराता मन
माना देते ये दर्द गहन
फिर भी कर जाती उसे सहन
पीड़ा के अन्दर जितने
गहरे गोते मैं खाऊँगी
उतनी ही निखरी - निखरी
खरी उबर कर आऊँगी
पीड़ा कर देती निश्छल मन
उजला - उजला निर्मल दर्पण
गहरा जाते घन सम्वेदन
उद्वेलित भावों का विगलन
दृष्टि में खिलते नए सुमन
सोचों में होते परिवर्तन
कट जाते जीर्ण शीर्ण बंधन
अंतस में एक सुन्दर मंथन
कुण्ठाएँ सब शान्त शमन
होता मन में दिन -रात मनन
विकसित होता जीवन - दर्शन
पीड़ा को मेरा प्रेम नमन!