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पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो / शाहिद कबीर

पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
न यूँ लपक कि पलटने को हौसला ही न हो

तमाम हर्फ़ ज़रूरी नहीं हों बे-मअ’नी
ये आसमान इधर झुक के टूटता ही न हो

मिले थे यूँ कि जुदा होके ऐसे मिलते हैं
हमारे बीच कभी जैसे कुछ हुआ ही न हो

हर एक शख़्स भटकता है तेरे शहर में यूँ
किसी की जेब में जैसे तिरा पता ही न हो

जो होता जाता है मायूस दिन-ब-दिन तुझ से
ज़रा क़रीब से देख इस को आईना ही न हो

जहाँ को छान के बैठा है इस तरह ‘शाहिद’
तमाम उम्र मैं जैसे कभी चला ही न हो