पुकारा है किसने नहीं जान पाए।
सुने बोल लेकिन न पहचान पाए।
तपाते रहे योग की धूनियाँ ही
कभी दर्शनों का न वरदान पाए|
ये मेले,ये त्यौहार बाहर सजे थे
मगर घर के भीतर,तो सुनसान पाए।
शिला नींव में, ठोकरों में रही जो
तराशी गई तो,वही मान पाए।
पसीना वदन का,है देता गवाही ,
नहीं हम किसी का भी एहसान पाए।
गुजारे कई कल्प उलझन में ऐसे
न आँसू बहाए न मुस्कान पाए।