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पुकारा है किसने नहीं जान पाए / कल्पना 'मनोरमा'

पुकारा है किसने नहीं जान पाए।
सुने बोल लेकिन न पहचान पाए।

तपाते रहे योग की धूनियाँ ही
कभी दर्शनों का न वरदान पाए|

ये मेले,ये त्यौहार बाहर सजे थे
मगर घर के भीतर,तो सुनसान पाए।

शिला नींव में, ठोकरों में रही जो
तराशी गई तो,वही मान पाए।

पसीना वदन का,है देता गवाही ,
नहीं हम किसी का भी एहसान पाए।

गुजारे कई कल्प उलझन में ऐसे
न आँसू बहाए न मुस्कान पाए।