Last modified on 13 सितम्बर 2009, at 14:19

पुत्रवधू से / प्रतिभा सक्सेना

द्वार खडा हरसिंगार फूल बरसाता है तुम्हारे स्वागत मे,
पधारो प्रिय पुत्र- वधू!

ममता की भेंट लिए खडी हूँ कब से,
सुनने को तुम्हारे मृदु पगों की रुनझुन!
सुहाग रचे चरण तुम्हारे, ओ कुल-लक्ष्मी,
आएँगे चह देहरी पार कर सदा निवास करने यहाँ,
श्री-सुख-समृद्धि बिखेरते हुए!

अब तक जो मै थी, तुम हो,
जो कुछ मेरा है तुम्हें अर्पित!
ग्रहण करो आँचल पसार कर, प्रिय वधू,
समय के झंझावातों से बचा लाई हूं जो,
अपने आँचल की ओट दे,
सौंपती हूँ तुम्हें -
उजाले की परंपरा!
ले जाना है तुम्हें
और उज्ज्वल, और प्रखर, और ज्योतिर्मय बनाकर
कि बाट जोहती हैं अगली पीढियाँ!

मेरी प्रिय वधू, आओ
तुम्हारे सिन्दूर की छाया से
अपना यह संसार और अनुरागमय हो उठे !