तिमिर से ढके विश्व में
कोलाहल जब
निद्रा के आलिंगनबद्ध हो चलता है,
चांद आखिरी पहर चढ़ रहा होता है,
अंधकार होता है चरम पर,
वो साधक
दूर धुंध उठती घाटियों में
अपने अहम का होम करता है!
जब घोर सन्नाटे में
सब कलरव सो जाते हैं,
जब सुदूर वनों में, दुर्बोध
सहस्त्राब्दियों के साक्षी मन्दिर
घंटियों से टकराती वायु को
मौन इतिहास सुनाते हैं,
उस त्रिकोण कुंड में
भस्म होती है आहुति।
कितने शरीरों में रह चुकी आत्मा
अंतिम ऋण चुकाती है,
कितने जीवनों की पुनरावृत्ति
उभर आती है अधरों पर मंत्र बनकर!
आत्मा करती है अंतिम हठ
समिधा के साथ
कर्म आहूत होते हैं,
आत्मा वस्त्र त्यागती है,
होती है
देवत्व की पुनरावृत्ति!