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पुरखा / कुमार वीरेन्द्र

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बोआई के समय
बाबा सेर-डेढ़ सेर, जादा बीया ले जाते
का जाने कवन भाँवर एक मुट्ठी बेसी गिर जाए; खेत अपना ही काहे, किसी का भी
हो, बीया ख़ातिर उघार नहीं रहना चाहिए; इसलिए बाँध पर तब तक बैठे रहते, जब
तक सबके बैल खुल नहीं जाते; जैसे ही आते आम के दिन, गमछी के
खूँट में गुड़ और आपन बड़कवा लोटा लिए मचान प बैठे
रहते; केहू आता, एकटुकी गुड़ आ पानी थमा
देते, खैनी खवनिहार, मलने लगते
यही नहीं, आँख लग
गई तबहिं
 
नाहीं तो देखते
डोली, रखवाली छोड़, घाट पहुँच
जाते, जो पीपल का पेड़, बैठ जाते वहीं; नदी लाँघने से पहले, कहारों से पूछते, ‘कहाँ
जाना है, भाई ?...’, और बताते वहाँ से लाँघना ठीक, फिर गुड़-पानी कि बीख घाम में
लहकत बाट; डोली में बैठी कनिया, मना करती, कह पड़ते, ‘पी ले, बेटवा
बाबूजी के हाथ का गुड़-पानी समझ’, पी लेती; जाने लगती
बाबा दूर तक ताकते रहते; किसी दिन देखता
उनकी आँखें भर आई हैं जिन्हें
बिन पोंछे सूखने
दे रहे

जब गाँव के कुछ
ने एकवट तय किया, कुछ को अपने
खेत में, शौच नहीं करने देंगे; बाबा ने मुश्किल से छुड़ाया था, जो रेहन से खेत, ई कहते
डीह बना दिया, 'अदिमी ही अदिमी बूझे, इसमें अनाज हो न हो, इन्हें आने-जाने से हम
नाहीं रोकेंगे'; फिर जैसे ही लगा मेला, भैंस बेच दी; मैं ख़ूब रोया, पावभर
लाई ख़रीदवाई, कान्ह पर बैठाए, दूर तलक बताते-समझाते
रहे; और एक दिन देखा, भैंस नहीं आई, टमटम
पर बाबा कई बोरे आलू ले आए कि
अनाज कम, पका, खा
सकें जादा

किसी का भी
झगड़ा हो, लगता, 'लोग इसे मार देंगे', लाठी
ले उसकी तरफ़ हो जाते, मार-पीट जो होती सो होती, केस भी लड़ते; तभी तो आज भी, अपने
हित कम; अक्सर देखता, जब तक सबके घर के दीये, बुता नहीं दिए जाते, बाबा दुआरे खटिया
पर जगे, खैनी बना खाते रहते; पूछता, यही कहते, 'अबहीं कई दीये जल रहे, बेटा
कैसे सो जाऊँ, कोई आ गया जोहते, सोया देख न जगाया, बड़का
अपराध हो जाएगा, तुम सो जाओ, मैं भी सो जाऊँगा'
और कई बार ऐसा, कि जगे रहते बाबा
दीये के बदले रात ख़ुद
बुझ जाती

उग आता सुरुज !