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पुरखे / प्रदीप शुक्ल

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जीवद्रव्य में वे
पीढ़ी दर पीढ़ी बहते हैं
जाते कहीं नहीं पुरखे
हममें ही रहते हैं

पुरखों के
पुरखों के पुरखे
औ उनकी पुरखिन
लाखों वर्षों की यात्राएँ
करते हुए कठिन

संततियों से सारी
व्यथा-कथाएँ कहते हैं
 
अनजाने
पुरखे ही हम पर
हुक़्म चलाते हैं
ऐसा ही करने को हम
पुरखे बन जाते हैं
 
उनके अहम्-वहम ही हम
जीवन भर सहते हैं

पशुता-मनुष्यता
के लक्षण
पीढ़ी दर पीढ़ी
चढ़ कर उतरें ऊपर नीचे
सीढ़ी दर सीढ़ी

उनकी ही इच्छाओं से
हम बनते-ढहते हैं