भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पुरातत्ववेत्ता / भाग 2 / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह=पुरात...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

00:58, 1 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

मृत्यु केवल सजीवों का गुणधर्म नहीं इस अर्थ में
कि इच्छाओं और सपनों का मर जाना भी मौत है
डरना चुप रहना कुछ न करना भी इसमें शामिल
और मान भी लिया जाए यह अपनी सहजता में
तो अर्थ क्या फिर निर्जीव की मौत का
दिल बहलाने वाली हैं आत्मा - परमात्मा के जीवन मृत्यु की बातें
यह श्मशान का वैराग्य है जीवन से भागे मनुष्य के जीवन में

और जीवन भी कोई गोलगप्पा नहीं
जिसे आप पुदीने की चटनी मिले जलजीरे में डुबोएँ
और परम संतृप्ति के भाव में गप से खा जाएँ
अपनी अजीब- अजीब परिभाषाओं में जीवित है यह
जीने की उत्सुकता और संभावनाओं से भरा जीवन
विश्वास के झुटपुटे में निकलता है टहलने
खुशी की खोज में भटकते हुए पाता है किसी रोज़
स्थिर बिम्ब में ठहरे अस्थिर जीवन का एक बिम्ब

दुख में जली हुई एक ईंट दिखाई देती है जिसमें
ढही हुई दीवारों के नीचे अरमानों का बुझा हुआ चूल्हा
अधजली लकड़ियाँ साँसों की चूल्हे से झाँकती हुई
फूटी मटकी में बचे उम्र के अधपके चावल
क्षैतिजीय पींग में रुका खुशियों का खाली पालना
धरती की छाती में धँसा मेहनत के हल का फाल
अपनी शर्म में दबा किसान के इकलौते बैल का कंकाल
छेनी हथौड़े के करीब ज़मीन पर लुढ़की पड़ी
पत्थर पर उकेरी कल्पनाओं की अधूरी प्रतिमा
जिस पर किसी अज्ञात शिल्पकार की उंगलियों की छाप
जिन्हें बाद में काट दिये जाने का ज़िक्र
किसी फटी किताब के गुम हुए पन्नों की तरह
इन बिम्बों से नदारद

हादसे की मुखबिरी करती है जंगल से आती हवा
चरवाहे की बंसी में सुनाई देती है यह खबर
कुल्हाड़ी की एक आवाज़ गूँजती है जंगल की चुप्पी में
लुटेरों के आतंक में कटते हुए पेड़ों की चीख
कि रुको हम रक्षक हैं तुम्हारे भविष्य के न सिर्फ़
तुम्हारे अतीत के जो बिखरा है यहाँ जाने कितनी सदियों से

सब कुछ अपनी जगह उसी तरह ठहरा हुआ
जैसे किसी बच्चे ने खेल में उसे ‘ स्टेच्यु ‘ कह दिया हो
और वह इन्तज़ार में कि कोई पुरातत्ववेत्ता आकर उसे ‘ टाइमओवर ‘ कहे

यह अवकाश के मानस में कल्पनाओं के भग्नचित्र नहीं है
न विधाता की तूलिका से चित्रित कोई अधूरा लैंडस्कैप
इसे कुदरत का क़हर मान कर जब दुनिया के तमाम धर्मग्रंथ
पटाक्षेप की मुहर लगा देते हैं मनुष्य की नियति पर
जीवन के इस उजाड़ में पुरातत्ववेत्ता अलावा इसके
आततायियों के घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनते हैं
कि उनमें है ब्योरों को इतिहास की शक्ल में प्रस्तुत करने का सामर्थ्य
और सच को झूठ साबित करने का इंसानी हुनर भी

बस इतना ही कि वे वाक़िफ़ नहीं उसकी फ़ितरत से
और सभ्य संसार की कलाबाज़ियों से
जो माहिर हैं मनुष्य की संवेदना भुनाने में
कि उन्हें पता है आधी साँस के बाद उजड़ जाने वाली
अतीत की इस भरी पूरी दुनिया का एक नेगेटिव
ज़रूर पड़ा होगा आधुनिकता की किसी कलर लैब में
किसी मल्टीनेशनल ग्रूप के अखबार में दया और
सहानुभूति की अपील के साथ छापे जाने के लिए अनुबंधित

इतिहास के बने बनाये साँचे नहीं हैं पुरातत्ववेत्ताओं के पास
कि वे खदान से निकले अशोधित सोने की तरह
ब्योरों को पिघलाकर उनमें डाल दें
और वे स्वर्णिम इतिहास की शक्ल में ढलकर आ जाएँ
कोई करघा भी नहीं उनके पास कथित अलौकिक शक्ति का
जिस पर वे तथ्यों का ताना- बाना डालें
और बुन डालें ऐसा इतिहास
जो अपनी सिली हुई शक्ल में
उनकी फटी कमीज़ पर नए कोट की तरह दिखाई दे

शब्दकोष से बाहर भी हैं शब्द
और उनके अर्थों से खेलने में एक परिभाषा का जन्म है
इतिहास यही है कि निश्चित ही ऐसा हुआ था
या जैसी है यह दुनिया वैसी क्यों बनी

एक कठिन यात्रा है समय के अधूरेपन की
पूर्णता की ओर बढ़ती हुई अपनी असमाप्त गति में
मनुष्य की खुशियाँ भी हैं इसमें और असफलताएँ
अपनी मिट्टी हवा पानी बोली लिए उपस्थित हैं सभ्यताएँ
कि उनके अपने अलग- अलग चमत्कार हैं
अलग- अलग रंगों में रंगी है उनकी जिजीविषा
और उन्हें एक रंग में देखने के प्रयास में संदेह है
कहीं यह आँख दिमाग़ और चश्मे की साज़िश तो नहीं

सभ्य संसार की चालाकियों से जैसे कि अनजान जनगण
बिरयानी समझ रहे मिले हुए माँस और चावल को
और हज़म कर रहे कुछ ऐसा ही इतिहास के नाम पर
बगैर यह जाने कि अपनी विशेषता में
आहार हैं वे अलग- अलग
और भूख के रंगमंच पर उनके प्रवेश में
सदियों का फासला है
खेल निराले हैं वर्तमान सभ्यता के
संभावित जीत के उन्माद से भरे हुए
नियमों से अन्जान हैं जिसके कि पुरातत्ववेत्ता
इतने भी नहीं तटस्थ कि अड़े हुए
और वे नहीं धर्म, अर्थ या राज जैसी किसी सत्ता के चाकर
इसके निहितार्थ में यह भी नहीं कि मर्ज़ी के मालिक
या उन्हें मिली है पूरी छूट तथ्यों के साथ खेलने की
या अपनी ग़लतियों का हिसाब
उन्हें भविष्य को नहीं देना है

उनकी नज़र में पसीने की हर बूँद इतिहास का आईना है
एक बया है जिसमें मूसलाधार बारिश में
मनुष्य के घर का इतिहास बचाती हुई
एक मछली जीवन - जल से बाहर आकर
मनुष्य को साँस लेना सिखाती हुई
और अपनी उँगलियाँ गँवा चुका एक घोड़ा
जंगल की ज़ंजीरें तुड़ाकर मैदान की ओर भागता
मनुष्य के पठार पर रहने का इतिहास जिसकी पीठ पर सवार है

(घोड़ा मनुष्य का बहुत पुराना साथी है। जब इस धरती पर जंगल ही जंगल थे तब घोड़े की पांच उंगलियां हुआ करती थी। इसका कारण यह था कि जंगलों में ज़मीन पर पत्ते बिछे होते थे और अपनी पांच उंगलियों की वजह से घोड़े को जमीन पर अच्छी तरह पैर टिकाने में मदद मिलती थी। कालांतर में जब महावन समाप्त होते गए और मैदान बनते गए तब घोड़े के पूर्वजों को भी खुले मैदान में आना पड़ा। जंगल में छुपने की जगह नहीं थी और केवल सबसे लंबी और तेज टांगों वाले जानवर ही थे जो बच सके, जो सबसे ज्यादा तेज दौड़ सकते थे वह घोड़े ही थे। लेकिन घोड़े की उंगलियां कम होती गई। उन्हें अब मैदानों में दौड़ने के लिए ज़्यादा उँगलियों की ज़रूरत नहीं थी। धीरे धीरे उसकी सिर्फ दो उंगलियाँ बचीं जिन्हें हम आज खुर कहते हैं।)
 
इतिहास जो साँस लेता है मनुष्य और प्रकृति के द्वन्द्व में
इसी सह अस्तित्व में सलामत है उसकी उम्र
और कुदरत जो सिर्फ़ उनके लिए तेवर नहीं बदलती
उसके हाथ में मौसम का चाबुक है
जिसकी मार से टूटती इरादों की पसलियाँ
देह धमन भट्ठी हो जाती लू के थपेड़ों में
सर्द हवाओं में जम जाता बर्फ सा लहू

बारिश में टूटती काम की लय
और समन्दर में तूफान उठे न उठे
दबाव में सिकुड़ते फेफड़े उम्मीद की गहराइयों में

और उनकी हँसी में मौसम के लिए उपहास
कि मिट्टी के नहीं बने हैं वे जो मिट्टी में मिल जायेंगे
लाख रोड़े अटकाये मौसम वे उन्हें बीन लेंगे
कि यही काम सौंपा है समय ने उन्हें
ढूँढ लाएँगें हड्डियाँ उन अभागों की
जिन्हें निराशा ने मिट्टी समझ कर दफ़्न किया था मिट्टी में

कुदरत को आव्हान करने की शैली में
यह जो सत्य को जन्म देने के दम्भ की तरह दिखाई देता है
इसमें झाँकती हैं उनकी क्षमताएँ
प्रतिकूल समय से संवाद की ललक है जिसमें
हालाँकि कोई स्वप्न नहीं उनके भीतर शोहरत का
महत्वाकांक्षा के लिए जीने की हड़बड़ी नहीं
कोई विवशता नहीं इस तरह जीवन बिताने की
दिवास्वप्नों में उन्हें अशर्फ़ियों से भरे सोने के हंडे नहीं दिखाई देते
न उन पर कुंडली मारे बैठा कोई साँप

इसमें कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं
और दुनिया को अगर यह उसकी सामान्य समझ में
मूर्खता या पागलपन दिखाई देता है तो दिखाई दे

कि उजालों के साथ अंधेरे भी चुनते हैं वे
धूप के साथ छाँव और घुटन हवाओं के साथ
कुछ पतझड़ बहारों के संग और काँटे संग फूलों के
थोड़ी उदासी खुशियों में छुपी और आँसू हँसी से मिले हुए
इसी तरह इकठ्ठा होती हैं बिखरी हुई ज़िन्दगानियाँ

और यह महज उनका शौक नहीं
जैसे कि लोग जमा करते हैं डाकटिकटें
माचिस के खोखे और डिब्बियाँ सिगरेट की
और कुछ समझदार लोग विचार या अनमोल वचन जैसा कुछ
तरह-तरह की हरकतों में गिनीज़ बुक में नाम होने का ख्वाब लिए
हालांकि यहाँ उनके श्रम को कम कर आँकने जैसा कुछ नहीं
और इस तरह की तुलना का उद्देश्य भी यहाँ नहीं
काम अपनी पहचान खुद बना लेता है

ग़ज़ब यह कि पुरातत्ववेत्ता नहीं सोचते ऐसा कुछ
कि कोई उनके काम के बारे में क्या सोचता है
यहाँ दुनिया की नासमझी में
उनके पुरातन-प्रेम पर नवीनता का एक ठहाका है
उपलब्धियों पर आधुनिक सभ्यता की अजनबी निगाहें
और उपेक्षा में एक कोशिश अपने अतीत से मुकर जाने की

वे पत्थर चुनते हैं और वे पत्थर नहीं
न देते दुनिया के उछाले इन पत्थरों का जवाब
सिर्फ़ इसलिए कि पुरातत्ववेत्ता होने के पहले से
और इस शब्द के अस्तित्व में आने के पहले से
और अपनी सभ्यता में मनुष्य के सभ्य होने के पहले से
वे मनुष्य हैं
पशु पक्षी पेड़ कीट -पतंगों और जिवाणुओं से भरी यह दुनिया
जहाँ ताकतवर ही जीने का हक़दार है
जहाँ खुद की आज़ादी में निर्बन्ध होने की चाह है
मगर जिसके अस्तित्व में अब भी एक अनिवार्य शर्त है संघर्ष
वहाँ मनुष्य के रूप में जन्म लेने का अर्थ उन्हें ज्ञात है
और यह भी कि जीवन पहली और अंतिम बार मिला है

वह जीवन जो अपने उपमानों में नहीं है
उसकी कोई एक शैली या ढंग नहीं
वह जो अपनी जड़ों से उत्स लेता है
जीवद्रव्य में तैरते हैं मनुष्य के स्वप्न
दिमाग़ की घाटी में चमकती है अतीत की अनुभूतियाँ
जब एक दिन उसने आग पकड़ने की कोशिश की थी
इसलिए कि वह उस वक़्त की सबसे चमकदार चीज़ थी
और स्त्री की देह से निकलता माँसपिंड देख चौंका था वह
यह क्या बला है उससे मिलती- जुलती
और हक्का-बक्का बैठा था वह अपने सहोदर की लाश के पास
कि उसे नहीं पता था मौत क्या होती है

ऐसे ही आश्चर्यलोक में प्रवेश से उनकी यात्रा का प्रारम्भ है
जिसके समाप्त होने की कोई समय सीमा नहीं है
अपने सारे टोटके आज़माकर उन्हें सुलाना चाहती है नींद
तो पाती है वे संस्कृति के प्रहरी बने हैं
और भटक रहे हैं इतिहास की अंधेरी सड़कों पर
बूढ़ी धरती की छाती में अटकी खाँसी की एक आवाज़
दिमाग के दरवाज़े खटखटाती है उनकी बेचैनी में
उन्हें उदास करती है खामोश हो चुकी एक किलकारी
चीख में तब्दील हो चुकी आल्हा की एक तान
ध्वस्त कर देती है उनकी देह के समस्त आरोह - अवरोह
हड़बड़ाकर उठ बैठते हैं वे अपनी बदहवासी में
जब कोई मासूम हँसी रूदन के स्वरों में देती है सुनाई
मानस में उठते हैं तत्कालीन स्थितियों के बेशुमार बवंडर
प्रश्नों की लकीरें बनती बिगड़ती हैं सोच की रेत पर
फटी हुई तस्वीरों से भरा अतीत का एलबम लिए
बच्चों सी मासूमियत में वे करते हैं पुरखों से सवाल
 
किसकी बेटी झूल रही थी पालने में उस वक़्त
जब ध्वंस के दबाव से ठहर गई थीं जीवन की साँसें
किसकी रोटी पकने से पहले जला दी गई थी बस्ती
किसका खिलौना कुचला गया था घोड़े की टापों के नीचे
किसकी डोली उठने से पहले उजड़ गई थी मांग
किस बच्चे ने दुनिया में आने से पहले मूंद ली थीं आँखें
किस के सपने बहा ले गई थी उफनती उमड़ती नदी
क्या यम के भैंसे पर सवार होकर आई थी मौत
ले गई थी नन्ही जवान और बूढ़ी धड़कने एक साथ
जिनके हाथों में अलग - अलग छोटी बड़ी जीवन रेखाएँ थीं

नदी पहाड़ समुद्र आकाश सभी उनके सवालों के घेरे में
कि सृजन और विनाश के साक्षी हैं वे हमेशा से
पूछते हैं वे बार - बार यही प्रश्न मिट्टी की परतों से
कितनी बार बस्तियों के बसने उजड़ने का तमाशा चला
कितनी बार आपदाओं ने छला मनुष्य का विश्वास
कितने बचे कितने मारे गए विध्वंस के क्रूर हाथों
कितनी सदियों तक जारी रहा यातनाओं का सिलसिला

प्रश्नमंच से पूछे गए इस तरह के सवालों के जवाब देना
धन कमाने का एक रोचक खेल हो सकता है हमारे लिए
सत्ता के इतिहास बोध का भ्रम पैदा करता हुआ
एक प्रश्नपत्र हो सकता है आई.ए.एस. की परीक्षा में आनेवाला
लेकिन पुरातत्ववेत्ता जानते हैं सवाल सिर्फ़ सवाल के लिए नहीं हैं
इन्हीं सवालों के जवाब में जन्म लेता नज़रिया
मुकम्मल करेगा आनेवाली दुनिया का सही मानचित्र

ज़मीन की गोद में पलती हुई शताब्दियाँ
उनके स्पर्श से जाग उठेंगी कच्ची नींद से
अपनी कठोर हथेलियों को थोड़ा सा नर्म बनाकर
वे उन गालों को थपथपाएँगे जिन पर आँसुओं के निशान होंगे
समय के अवचेतन में होगा बीते कल का भग्न विचार
जिसे अपनी खुरपी से कुरेद कर बाहर निकालेंगे पुरातत्ववेत्ता
अपने ब्रश से हटाएँगे उस पर जमी रहस्य की धूल
उसका टूटा हुआ भविष्य जोड़ेंगे
एक आकार देंगे उसके रूप को
मानव की अंधश्रद्धा पर जीवित मांत्रिक या देवता की तरह
वे उसमें प्राणों के संचार का छद्म प्रयास नहीं करेंगे
ठहरे हुए कालचक्र में ठहरा हुआ वह क्षण उन्हें स्वीकार होगा
अचेतन में आरोपित होगी उनकी समस्त चेतना
काल की स्थिरता में ज्ञान की गति का संक्रमण होगा

फिर अचानक हिलने लगेगा रुका हुआ वह पालना
घूमने लगेगा पृथ्वी की धुरी पर ठहरा हुआ कुम्हार का चाक
ईंट भठ्ठे की ढही हुई चिमनी उगलने लगेगी धुआँ
क्षितिज की दिशा में दौड़ पड़ेगी बच्चे की मिट्टी की गाड़ी
फूस की झोपड़ी में जल उठेगा चर्बी से भरा दिया
आखेट की मुद्रा में स्थिर पाँव थिरकने लगेंगे
चल देगी फिर पनिहारिन पनघट पर
टुकड़े - टुकड़े जोड़कर बनाया मृद्भाण्ड उठाकर
गीले वस्त्रों में निकल आएगी मोहनजोदड़ो के स्नानागार से
कोई सद्यप्रसूता नहा कर
अभी लोथल के बन्दरगाह पर लंगर डालेगा
चांदी और मसालों से लदा कोई जहाज़
अभी इकतारे के टूटे तार से आएगी एक आवाज़

कोई चमत्कार नहीं होगा अगर ऐसा होगा
विस्मय अवश्य चाहेगा कि वह उनकी आँखों में प्रवेश करे
और उनकी दिखाई दुनिया के माध्यम से
समस्त बुद्धिलोक में स्थान पा जाए
और बुद्धि पर अबुद्धि की विजय घोषित करे
श्रद्धा अवश्य चाहेगी कि वह अज्ञान का सहारा लेकर बढ़े
और तर्क को स्थानच्युत कर मनुष्य के मन में घर कर जाए
सत्य अवश्य चाहेगा कि लोग उसके कृत्रिम स्वाद से खुश रहें
और भूल जाएँ असल स्वाद की अनुभूतियाँ
पुरातत्ववेत्ता नहीं चाहेंगे कि ऐसा हो
कि उनका श्रम जादू की तरह सर चढ़कर बोले
और अवास्तविक शक्तियों के प्रति श्रद्धा पैदा करे
और मानवीय को अतिमानवीय के रूप में दिखाकर
मनुष्य को उसके अतीत के अक्षम्य अपराधों से मुक्त करे

अगर ऐसा होगा
तो भटकाव असमंजस अनिश्चितता से भरा
वह एक दरका हुआ विश्वास होगा

कठिन है बहुत कठिन पुरातत्ववेत्ताओं के लिए
ज़मीन से निकली हर जिन्स को
उसकी उपमाओं में देख पाना
पत्थर को दिल समझना और खोपड़ी को ख़तरा
मोती में टपके हुए आँसू चुनना
और फूलों में देखना बच्चे की मुस्कान
कि यहाँ बदले जा रहे हैं हर चीज़ के मायने
सच्चाई का अर्थ साबुन बताया जा रहा है
शुभ का अर्थ नारियल तेल
विश्वास निगल रही हैं मच्छर मारने वाली मशीनें
बाज़ार गढ़ रहा है अपने नए मिथक
सिर्फ़ नूतन का बोलबाला है इलेक्ट्रानिक युग में
और पुरातन उपेक्षित सा इस दुनिया के बाहर
माइक्रोचिप्स की बदौलत चल रही दुनिया की साँसें
वर्तमान के पास पल भर ठहरने की फुर्सत नहीं है

(इन पंक्तियों में उन दिनों टी वी पर आनेवाले कुछ विज्ञापनों का सन्दर्भ है जिसमें एक बच्चे को उसकी माँ द्वारा सच्चाई का अर्थ एक साबुन बताया जाता है, नारियल तेल का टीका लगाकर उसे शुभ कहा जाता था और एक मच्छर मारने के द्रव्य द्वारा मच्छर को निगलता हुआ बताया जाता था )

वहीं वे छुपाए बैठे हैं अतीत कुछ इस तरह
अपनी कमीज़ के भीतर कहीं दिल के पास
जैसे वह पुराने फैशन का चाबी वाला खिलौना हो
गुम हो गई हो जिसकी चाबी समय के हाथों
कि उसे छीनकर तोड़ देना चाहते हैं कुछ शरारती बच्चे
जिन्हें खेलने का शऊर तक नहीं
जो हर खेल में करते हैं रोंटाई
बहुत मुश्किल है इसे उनका बचपन कहकर टाल जाना
या उनकी प्रभुता के आतंक में बंद रखना ज़ुबान

इधर घातक अविष्कारों के चलते दुनिया सन्न
उखड़ रही हैं पृथ्वी की साँसें कि आख़िरी घड़ी है
उसकी डूबती नब्ज़ थामें उदास बैठे हैं पुरातत्ववेत्ता
शहरों में अकादमिक बहस जारी है
पुराविज्ञान की शब्दावली पर
और वे जंगलों में पहाड़ों में
आदिवासियों से बोलने - बतियाने में खुश हैं
कुदाल चलाने वाले मजदूरों को समझाते हुए
गड्ढे और निखात में अंतर
छानते हुए मिट्टी बीनते हुए कंकर
सहेज रहे हैं इस विनाशी संसार की हर विनष्ट वस्तु
समेट रहे हैं भूल से मनुष्य के हाथों बिखरा एक जीवन
कि उसके वंशजों को उसकी जड़ें दे सकें
हटा सकें उनके माथे पर चिपका आनुवांशिक अपराधबोध
और अतीत को भूल जाने के शाप से उन्हें मुक्त कर सकें

पुरातत्ववेत्ता जानते हैं वे भूसे के ढेर में सुई तलाश रहे हैं
फ़क़त इस गुमान में कि आने वाली सभ्यता निर्वस्त्र न दिखे

(पुरातत्ववेत्ता उत्खनन हेतु विशेष प्रकार से खुदाई करते हैं जिसमे एक विशेष प्रकार का गड्ढा बनाया जाता है जिसे निखात या ट्रेंच कहते हैं। इसमें उपकरणों की सहायता से बहुत धीरे धीरे सावधानी पूर्वक खुदाई की जाती है ताकि ज़मीन से निकलने वाला प्राचीन सभ्यता का कोई अवशेष नष्ट न हो।उत्खनन में निकली छोटी से छोटी वास्तु का भी बहुत महत्व होता है। इतिहास इन्ही के आधार पर रचा जाता है।)