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"पुराना क़िला / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर

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[भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा हादसा था-अक्तूबर 1962 में चीन का आक्रमण। उसने न केवल सारे देश को हतप्रभ कर दिया था, हमारी दु:खद पराजय ने अब तक पाले हुए सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मानो एक ही चोट में नेहरू युग की सारी विसंगतियाँ उजागर हो गयी थीं और खुद नेहरू, जिन्हें सारा देश प्यार करता था, पक्षाघात से पीड़ित पड़े थे। विचित्र यह था कि इस भयानक शून्य को किन्हीं नये मूल्यों से या आदर्शों से भरने की चिन्ता करने के बजाय चिन्ता थी ‘नेहरू के बाद कौन?’ और सिसायत के खेल खेले जाने लगे थे। उस सारी भयावह परिस्थितियों में उभरा था यह बिंब-सन् ’63 में। कई महीनों के दौरान लिखी गयी थी यह कविता-‘पुराना क़िला’।]
  
  
[भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा हादसा था-अक्तूबर 1962 में चीन का आक्रमण। उसने न केवल सारे देश को हतप्रभ कर दिया था, हमारी दु:खद पराजय ने अब तक पाले हुए सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मानो एक ही चोट में नेहरू युग की सारी विसंगतियाँ उजागर हो गयी थीं और खुद नेहरू, जिन्हें सारा देश प्यार करता था, पक्षाघात से पीड़ित पड़े थे।
+
खा...मो..श !
विचित्र यह था कि इस भयानक शून्य को किन्हीं नये मूल्यों से या आदर्शों से भरने की चिन्ता करने के बजाय चिन्ता थी ‘नेहरू के बाद कौन?’ और सिसायत के खेल खेले जाने लगे थे।
+
बोलो मत...
उस सारी भयावह परिस्थितियों में उभरा था यह बिंब-सन् ’63 में। कई महीनों के दौरान लिखी गयी थी यह कविता-‘पुराना क़िला’।]
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एक भी आवाज़, एक भी सवाल, लबों की हल्की-सी जुम्बिश भी नहीं नहीं,
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एक हल्की-सी दबी हुई सिसकी भी नहीं !
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हर दीवार के कान हैं
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और दीवार के इस पार का हर कान
 +
दीवार के उस पार चुगलखोर मुँह बन जाता है
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जहाँ शहंशाह
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हकीमों, नजूमियों, खोजों और नक्शानवीसों से घिरे
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अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात गुजार रहे हैं !
  
 +
ख़बरदार !
 +
हिलो मत !
 +
सजदे में झुकने वाला हर धड़ दुआ माँगते हुए
 +
सिर से अलग कर दिया जाएगा
 +
शहंशाह को भरोसा नहीं कि कौन दुआ माँगने वाला
 +
अपने लबादे में खंजर छुपा कर लाया हो !
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किले के बाहर रौंदी हुई फसलें, बिछी हुई लाशें, जले हुए गाँव, भुखमरे लोग :
 +
क्या तुम्हारी दुआ उन्हें लगी जो शहंशाह को लगेगी ?
  
खा...मो..श !<br>
+
मौत किले के आँगन में आ चुकी है
बोलो मत...<br>
+
और शहंशाह के नक्शानवीस अभी तजवीजें पेश कर रहे हैं
एक भी आवाज़, एक भी सवाल, लबों की हल्की-सी जुम्बिश भी नहीं नहीं, <br>
+
कि किले की दीवारें ऊँची कर दी जाएँ
एक हल्की-सी दबी हुई सिसकी भी नहीं !<br>
+
खाइयों में खौलता पानी दौडा दिया जाए
हर दीवार के कान हैं<br>
+
फाटकों पर जहर-बुझे नेजे जड़ दिये जाएँ
और दीवार के इस पार का हर कान<br>
+
अँधेरा, बिल्कुल अँधेरा कर दिया जाए
दीवार के उस पार चुगलखोर मुँह बन जाता है<br>
+
जहाँ शहंशाह<br>
+
हकीमों, नजूमियों, खोजों और नक्शानवीसों से घिरे<br>
+
अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात गुजार रहे हैं !<br><br>
+
  
ख़बरदार !<br>
+
अँधेरा घुप !
हिलो मत !<br>
+
कौन है जो चादर, अगरबत्ती, बेले के फूल और चिराग लाया है
सजदे में झुकने वाला हर धड़ दुआ माँगते हुए<br>
+
साजिश ! खतरा ! दौड़ो दौड़ो अलमबरदारो
सिर से अलग कर दिया जाएगा<br>
+
खंजर से टुकड़े-टुकड़े कर दो ये चादर, ये गजरे, ये चिराग
शहंशाह को भरोसा नहीं कि कौन दुआ माँगने वाला<br>
+
मान लिया कि इस अभागिन के बाप, भाई, प्रेमी और बेटे
अपने लबादे में खंजर छुपा कर लाया हो !<br>
+
शहंशाह की खामख्याली से ऊबड़खाबड़ घाटियों में जाकर खेत रहे
किले के बाहर रौंदी हुई फसलें, बिछी हुई लाशें, जले हुए गाँव, भुखमरे लोग :<br>
+
पर इसे क्या हक है कि यह
क्या तुम्हारी दुआ उन्हें लगी जो शहंशाह को लगेगी ?<br><br>
+
उनके मजार पर इस अँधेरी रात चिराग रक्खे
 +
उस टिमटिमाती रोशनी में मौत को
 +
शहंशाह के कमरे तक जाती हुई पगडंडी दीख गयी तो ?
  
मौत किले के आँगन में आ चुकी है<br>
+
न एक चिराग
और शहंशाह के नक्शानवीस अभी तजवीजें पेश कर रहे हैं<br>
+
न एक जुम्बिश
कि किले की दीवारें ऊँची कर दी जाएँ<br>
+
न एक आवाज़
खाइयों में खौलता पानी दौडा दिया जाए<br>
+
फाटकों पर जहर-बुझे नेजे जड़ दिये जाएँ<br>
+
अँधेरा, बिल्कुल अँधेरा कर दिया जाए<br><br>
+
  
अँधेरा घुप !<br>
+
ख़ा मो श !
कौन है जो चादर, अगरबत्ती, बेले के फूल और चिराग लाया है<br>
+
कौन है जो अँधेरे में मुट्ठियाँ कसे
साजिश ! खतरा ! दौड़ो दौड़ो अलमबरदारो<br>
+
होठ भींचे एक शब्द के लिए छटपटाता है...
खंजर से टुकड़े-टुकड़े कर दो ये चादर, ये गजरे, ये चिराग<br>
+
ख़ ब र दा र...
मान लिया कि इस अभागिन के बाप, भाई, प्रेमी और बेटे<br>
+
शहंशाह की खामख्याली से ऊबड़खाबड़ घाटियों में जाकर खेत रहे<br>
+
पर इसे क्या हक है कि यह<br>
+
उनके मजार पर इस अँधेरी रात चिराग रक्खे<br>
+
उस टिमटिमाती रोशनी में मौत को<br>
+
शहंशाह के कमरे तक जाती हुई पगडंडी दीख गयी तो ?<br><br>
+
  
न एक चिराग<br>
+
बा अदब...
न एक जुम्बिश<br>
+
बा मुलाहिजा...
न एक आवाज़<br><br>
+
रास्ता छोड़ो
 +
पीछे हटो
 +
जानते नहीं कौन जा रहे हैं ?
 +
हँसो मत बेअदब !
 +
दु:ख की घड़ी है
 +
दीवाने-खास के खासुलखास विदूषक कतार बाँधे अपने गाँव लौट रहे हैं।
 +
ये हैं जिन्होंने दरबार को हर संकट में राहत दी
 +
कत्लगाह में लुढ़कते हर विद्रोही सिर को
 +
इन्होंने गेंद की तरह उछाल कर दरबार को हँसाया
 +
रियाया के आँसुओं से अभिनन्दन पिरोये
 +
खिंची हुई खालों को ढोलक पर मढ़कर तुकबन्दियाँ बजायीं
  
ख़ा मो श !<br>
+
अगर मरते वक्त भी ये जहाँपनाह से शिरोपेच और अपनी दक्षिणा लेने गये
कौन है जो अँधेरे में मुट्ठियाँ कसे<br>
+
तो इन पर खीजो मत-तरस खाओ !
होठ भींचे एक शब्द के लिए छटपटाता है...<br>
+
तुम्हें क्या मालूम कि ये बरसों पहले अपने कुटुम्बियों
ख़ ब र दा र...<br><br>
+
पड़ोसियों और गाँववालों की फरियाद लेकर आये थे
 +
जहाँपनाह को असलियत बताने !
  
बा अदब...<br>
+
इनके भयभीत देहातीपन ने जहाँपनाह की दिलबस्तगी की
बा मुलाहिजा...<br>
+
और तब से ये भयभीत बने रहे दिलबस्तगी की खातिर
रास्ता छोड़ो<br>
+
पीछे हटो<br>
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जानते नहीं कौन जा रहे हैं ?<br>
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हँसो मत बेअदब !<br>
+
दु:ख की घड़ी है<br>
+
दीवाने-खास के खासुलखास विदूषक कतार बाँधे अपने गाँव लौट रहे हैं।<br>
+
ये हैं जिन्होंने दरबार को हर संकट में राहत दी<br>
+
कत्लगाह में लुढ़कते हर विद्रोही सिर को<br>
+
इन्होंने गेंद की तरह उछाल कर दरबार को हँसाया<br>
+
रियाया के आँसुओं से अभिनन्दन पिरोये<br>
+
खिंची हुई खालों को ढोलक पर मढ़कर तुकबन्दियाँ बजायीं<br><br>
+
  
अगर मरते वक्त भी ये जहाँपनाह से शिरोपेच और अपनी दक्षिणा लेने गये<br>
+
हँसो मत
तो इन पर खीजो मत-तरस खाओ !<br>
+
इनके जरीदार दुपट्टों और बड़ी पागों पर !
तुम्हें क्या मालूम कि ये बरसों पहले अपने कुटुम्बियों<br>
+
ये बड़े लोग हैं-
पड़ोसियों और गाँववालों की फरियाद लेकर आये थे<br>
+
छोटा-सा मुँह लेकर अपने गाँवों को लौटते हुए
जहाँपनाह को असलियत बताने !<br><br>
+
  
इनके भयभीत देहातीपन ने जहाँपनाह की दिलबस्तगी की<br>
+
इनसे इनके कुटुम्बी, पड़ोसी, गाँववाले पूछेंगे
और तब से ये भयभीत बने रहे दिलबस्तगी की खातिर<br><br>
+
कि क्या तुमने शहंशाह को असलियत बतायी
 +
तो ये किसमें मुँह छिपायेंगे बिना इन पागों और जरीदार दुपट्टों के
 +
पीछे हटो नामसझो
 +
कौन बेदर्द है जो
 +
मखौल में इनके दुपट्टे खींचता है, पगड़ी उछालता है !
  
हँसो मत<br>
+
बा...अदब
इनके जरीदार दुपट्टों और बड़ी पागों पर !<br>
+
बा...मुलाहिजा !
ये बड़े लोग हैं-<br>
+
छोटा-सा मुँह लेकर अपने गाँवों को लौटते हुए<br><br>
+
  
इनसे इनके कुटुम्बी, पड़ोसी, गाँववाले पूछेंगे<br>
+
एक धुपधुपाती हुई बेडौल मोमबत्ती
कि क्या तुमने शहंशाह को असलियत बतायी<br>
+
खुफिया सुरंगों, जमीदोज तहखानों, चोर-दरवाजों और टेढ़े-मेढ़े जीनों पर घुमायी जा रही है
तो ये किसमें मुँह छिपायेंगे बिना इन पागों और जरीदार दुपट्टों के<br>
+
दीवारों पर खुदे ये किसके पुराने नाम फिर से दर्ज किये जा रहे हैं ?
पीछे हटो नामसझो<br>
+
कौन बेदर्द है जो<br>
+
मखौल में इनके दुपट्टे खींचता है, पगड़ी उछालता है !<br><br>
+
  
बा...अदब<br>
+
ये उन अमीर उमरावों के नाम हैं जिन्होंने कभी
बा...मुलाहिजा !<br><br>
+
मुहरें और पुखराज
 +
बच्चों के मुँह से छीने हुए कौर
 +
नीलम और हीरे
 +
औरतों के बदन से खसोटे हुए जेवर
 +
चमड़े की मुहरबन्द थैलियों में भर कर
 +
शहंशाह को पेशेनजर किये थे !
  
एक धुपधुपाती हुई बेडौल मोमबत्ती<br>
+
उनसे किले की दीवारें मजबूत की गयीं
खुफिया सुरंगों, जमीदोज तहखानों, चोर-दरवाजों और टेढ़े-मेढ़े जीनों पर घुमायी जा रही है<br>
+
उनसे बेगमात के लिए बिल्लौरी हौज बने
दीवारों पर खुदे ये किसके पुराने नाम फिर से दर्ज किये जा रहे हैं ?<br><br>
+
उनसे दीवानखानों के लिए फानूस ढलवाये गये
 +
उनसे मरमरी फर्शों पर इत्र का छिड़काव हुआ
 +
उनसे इन्साफ के घंटे के लिए ठोस सोने की जंजीर ढलवायी गयी
 +
और अब उन तमान बदनीयत अमीर उमरा के नाम
 +
कत्ल का परवाना भेजा जा रहा है
 +
ताकि खुदा के सामने पेशी के वक्त
 +
पाक नीयत शहंशाह के जमीर पर
 +
कोई दाग न छूट जाए
  
ये उन अमीर उमरावों के नाम हैं जिन्होंने कभी<br>
+
एक धुपधुपाती हुई मोमबत्ती
मुहरें और पुखराज<br>
+
बिल्लौरी हम्मामों, अन्धी सुरंगों, खुशनुमा फानूसों, खौफनाक तहखानों
बच्चों के मुँह से छीने हुए कौर<br>
+
इत्र धुले फर्शों, चोरदरवाजों में से घुमायी जा रही है
नीलम और हीरे<br>
+
दीवारों पर खुदे पुराने नामों की शिनाख्त के लिए
औरतों के बदन से खसोटे हुए जेवर<br>
+
उनमें शहंशाह के हमप्याला हमनेवाला जिगरी दोस्तों के नाम हैं !
चमड़े की मुहरबन्द थैलियों में भर कर<br>
+
शहंशाह को पेशेनजर किये थे !<br><br>
+
  
उनसे किले की दीवारें मजबूत की गयीं<br>
+
गजर बजेगा मायूस आवाज में
उनसे बेगमात के लिए बिल्लौरी हौज बने<br>
+
और सहर होते ही महल का मातमकदा खोल दिया जाएगा !
उनसे दीवानखानों के लिए फानूस ढलवाये गये<br>
+
लटके हुए काले परदे, खुली हुई पवित्र पुस्तकें !
उनसे मरमरी फर्शों पर इत्र का छिड़काव हुआ<br>
+
उनसे इन्साफ के घंटे के लिए ठोस सोने की जंजीर ढलवायी गयी<br>
+
और अब उन तमान बदनीयत अमीर उमरा के नाम<br>
+
कत्ल का परवाना भेजा जा रहा है<br>
+
ताकि खुदा के सामने पेशी के वक्त<br>
+
पाक नीयत शहंशाह के जमीर पर<br>
+
कोई दाग न छूट जाए<br><br>
+
  
एक धुपधुपाती हुई मोमबत्ती<br>
+
लोग मगर ज्यादा मुस्तैद हैं ताजपोशी के सरंजाम में
बिल्लौरी हम्मामों, अन्धी सुरंगों, खुशनुमा फानूसों, खौफनाक तहखानों<br>
+
पायताने बैठे हुए लोगों का मातम में झुका हुआ सिर
इत्र धुले फर्शों, चोरदरवाजों में से घुमायी जा रही है<br>
+
ताज पहनने के लिए उठने का अभ्यास करना चाहता है !
दीवारों पर खुदे पुराने नामों की शिनाख्त के लिए<br>
+
मगर बादशाह ने हाथ के इशारे से लुहार बुलवाये हैं
उनमें शहंशाह के हमप्याला हमनेवाला जिगरी दोस्तों के नाम हैं !<br><br>
+
वे ताज को पीट-पीट कर चौड़ा कर रहे हैं
  
गजर बजेगा मायूस आवाज में<br>
+
कल सुबह जब ताज पहनने के लिए सिर एक-एक कर आएँगे
और सहर होते ही महल का मातमकदा खोल दिया जाएगा !<br>
+
तब ताज कहीं बड़ा लगेगा और सिर बहुत छोटे
लटके हुए काले परदे, खुली हुई पवित्र पुस्तकें !<br><br>
+
और एक-एक कर इन सिरों से ताज
 +
और इन धड़ों से सिर उतार दिये जाएँगे
  
लोग मगर ज्यादा मुस्तैद हैं ताजपोशी के सरंजाम में<br>
+
कल सुबह शहंशाह न होगा
पायताने बैठे हुए लोगों का मातम में झुका हुआ सिर<br>
+
पर बाद मदफन उस पुरमजाक बादशाह का
ताज पहनने के लिए उठने का अभ्यास करना चाहता है !<br>
+
यह आखिरी मजाक अदा होगा
मगर बादशाह ने हाथ के इशारे से लुहार बुलवाये हैं<br>
+
जिसे देख कर
वे ताज को पीट-पीट कर चौड़ा कर रहे हैं<br><br>
+
हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगी वह तमाशबीन रियाया
 +
जो हँसना खिलखिलाना जाने कब का भूल चुकी है !
  
कल सुबह जब ताज पहनने के लिए सिर एक-एक कर आएँगे<br>
+
या मेरे परवरदिगार
तब ताज कहीं बड़ा लगेगा और सिर बहुत छोटे<br>
+
मुझ पर रहम कर !
और एक-एक कर इन सिरों से ताज<br>
+
बदनसीब खुसरू की आँखों में दागी गर्म सलाखों से
और इन धड़ों से सिर उतार दिये जाएँगे<br><br>
+
जियादा तकलीफेदेह है इस बेडौल असलियत को अपनी आँखों देखना
 +
और इसके बाबत कुछ भी न कर पाना !
  
कल सुबह शहंशाह न होगा<br>
+
काश कि मैं भी अपनी निगाहें फेर सकता
पर बाद मदफन उस पुरमजाक बादशाह का<br>
+
मगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दीं कि मैं देखूँ
यह आखिरी मजाक अदा होगा<br>
+
और मैं तेरे देने को झुठला नहीं पाता !
जिसे देख कर<br>
+
मौत किले के आँगन में घूम रही है
हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगी वह तमाशबीन रियाया<br>
+
और वे हैं कि अभी किले की दीवारें ऊँची कर रहे हैं
जो हँसना खिलखिलाना जाने कब का भूल चुकी है !<br><br>
+
खाइयों के पास कँटीले झाड़ बोये जा रहे हैं जिनकी जड़े
 +
कब्र में दफन नौजवानों की पसलियों में फूटेंगी
  
या मेरे परवरदिगार<br>
+
!
मुझ पर रहम कर !<br>
+
तूने मुझे क्यों भेज दिया इस पुराने किले में इस अँधेरी रात :
बदनसीब खुसरू की आँखों में दागी गर्म सलाखों से<br>
+
जहाँ मैं छटपटा रहा हूँ
जियादा तकलीफेदेह है इस बेडौल असलियत को अपनी आँखों देखना<br>
+
उस बेचैन चश्मदीदी पुकार की तरह जिसे एक-एक शब्द के लिए
और इसके बाबत कुछ भी न कर पाना !<br><br>
+
मोहताज कर दिया गया हो !
  
काश कि मैं भी अपनी निगाहें फेर सकता<br>
+
खा...मो..श !
मगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दीं कि मैं देखूँ<br>
+
खबरदा...र !!</poem>
और मैं तेरे देने को झुठला नहीं पाता !<br>
+
मौत किले के आँगन में घूम रही है<br>
+
और वे हैं कि अभी किले की दीवारें ऊँची कर रहे हैं<br>
+
खाइयों के पास कँटीले झाड़ बोये जा रहे हैं जिनकी जड़े<br>
+
कब्र में दफन नौजवानों की पसलियों में फूटेंगी<br><br>
+
 
+
ओ !<br>
+
तूने मुझे क्यों भेज दिया इस पुराने किले में इस अँधेरी रात :<br>
+
जहाँ मैं छटपटा रहा हूँ<br>
+
उस बेचैन चश्मदीदी पुकार की तरह जिसे एक-एक शब्द के लिए<br>
+
मोहताज कर दिया गया हो !<br><br>
+
 
+
खा...मो..श !<br>
+
खबरदा...र !!
+

19:03, 8 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

[भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा हादसा था-अक्तूबर 1962 में चीन का आक्रमण। उसने न केवल सारे देश को हतप्रभ कर दिया था, हमारी दु:खद पराजय ने अब तक पाले हुए सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मानो एक ही चोट में नेहरू युग की सारी विसंगतियाँ उजागर हो गयी थीं और खुद नेहरू, जिन्हें सारा देश प्यार करता था, पक्षाघात से पीड़ित पड़े थे। विचित्र यह था कि इस भयानक शून्य को किन्हीं नये मूल्यों से या आदर्शों से भरने की चिन्ता करने के बजाय चिन्ता थी ‘नेहरू के बाद कौन?’ और सिसायत के खेल खेले जाने लगे थे। उस सारी भयावह परिस्थितियों में उभरा था यह बिंब-सन् ’63 में। कई महीनों के दौरान लिखी गयी थी यह कविता-‘पुराना क़िला’।]


खा...मो..श !
बोलो मत...
एक भी आवाज़, एक भी सवाल, लबों की हल्की-सी जुम्बिश भी नहीं नहीं,
एक हल्की-सी दबी हुई सिसकी भी नहीं !
हर दीवार के कान हैं
और दीवार के इस पार का हर कान
दीवार के उस पार चुगलखोर मुँह बन जाता है
जहाँ शहंशाह
हकीमों, नजूमियों, खोजों और नक्शानवीसों से घिरे
अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात गुजार रहे हैं !

ख़बरदार !
हिलो मत !
सजदे में झुकने वाला हर धड़ दुआ माँगते हुए
सिर से अलग कर दिया जाएगा
शहंशाह को भरोसा नहीं कि कौन दुआ माँगने वाला
अपने लबादे में खंजर छुपा कर लाया हो !
किले के बाहर रौंदी हुई फसलें, बिछी हुई लाशें, जले हुए गाँव, भुखमरे लोग :
क्या तुम्हारी दुआ उन्हें लगी जो शहंशाह को लगेगी ?

मौत किले के आँगन में आ चुकी है
और शहंशाह के नक्शानवीस अभी तजवीजें पेश कर रहे हैं
कि किले की दीवारें ऊँची कर दी जाएँ
खाइयों में खौलता पानी दौडा दिया जाए
फाटकों पर जहर-बुझे नेजे जड़ दिये जाएँ
अँधेरा, बिल्कुल अँधेरा कर दिया जाए

अँधेरा घुप !
कौन है जो चादर, अगरबत्ती, बेले के फूल और चिराग लाया है
साजिश ! खतरा ! दौड़ो दौड़ो अलमबरदारो
खंजर से टुकड़े-टुकड़े कर दो ये चादर, ये गजरे, ये चिराग
मान लिया कि इस अभागिन के बाप, भाई, प्रेमी और बेटे
शहंशाह की खामख्याली से ऊबड़खाबड़ घाटियों में जाकर खेत रहे
पर इसे क्या हक है कि यह
उनके मजार पर इस अँधेरी रात चिराग रक्खे
उस टिमटिमाती रोशनी में मौत को
शहंशाह के कमरे तक जाती हुई पगडंडी दीख गयी तो ?

न एक चिराग
न एक जुम्बिश
न एक आवाज़

ख़ा मो श !
कौन है जो अँधेरे में मुट्ठियाँ कसे
होठ भींचे एक शब्द के लिए छटपटाता है...
ख़ ब र दा र...

बा अदब...
बा मुलाहिजा...
रास्ता छोड़ो
पीछे हटो
जानते नहीं कौन जा रहे हैं ?
हँसो मत बेअदब !
दु:ख की घड़ी है
दीवाने-खास के खासुलखास विदूषक कतार बाँधे अपने गाँव लौट रहे हैं।
ये हैं जिन्होंने दरबार को हर संकट में राहत दी
कत्लगाह में लुढ़कते हर विद्रोही सिर को
इन्होंने गेंद की तरह उछाल कर दरबार को हँसाया
रियाया के आँसुओं से अभिनन्दन पिरोये
खिंची हुई खालों को ढोलक पर मढ़कर तुकबन्दियाँ बजायीं

अगर मरते वक्त भी ये जहाँपनाह से शिरोपेच और अपनी दक्षिणा लेने गये
तो इन पर खीजो मत-तरस खाओ !
तुम्हें क्या मालूम कि ये बरसों पहले अपने कुटुम्बियों
पड़ोसियों और गाँववालों की फरियाद लेकर आये थे
जहाँपनाह को असलियत बताने !

इनके भयभीत देहातीपन ने जहाँपनाह की दिलबस्तगी की
और तब से ये भयभीत बने रहे दिलबस्तगी की खातिर

हँसो मत
इनके जरीदार दुपट्टों और बड़ी पागों पर !
ये बड़े लोग हैं-
छोटा-सा मुँह लेकर अपने गाँवों को लौटते हुए

इनसे इनके कुटुम्बी, पड़ोसी, गाँववाले पूछेंगे
कि क्या तुमने शहंशाह को असलियत बतायी
तो ये किसमें मुँह छिपायेंगे बिना इन पागों और जरीदार दुपट्टों के
पीछे हटो नामसझो
कौन बेदर्द है जो
मखौल में इनके दुपट्टे खींचता है, पगड़ी उछालता है !

बा...अदब
बा...मुलाहिजा !

एक धुपधुपाती हुई बेडौल मोमबत्ती
खुफिया सुरंगों, जमीदोज तहखानों, चोर-दरवाजों और टेढ़े-मेढ़े जीनों पर घुमायी जा रही है
दीवारों पर खुदे ये किसके पुराने नाम फिर से दर्ज किये जा रहे हैं ?

ये उन अमीर उमरावों के नाम हैं जिन्होंने कभी
मुहरें और पुखराज
बच्चों के मुँह से छीने हुए कौर
नीलम और हीरे
औरतों के बदन से खसोटे हुए जेवर
चमड़े की मुहरबन्द थैलियों में भर कर
शहंशाह को पेशेनजर किये थे !

उनसे किले की दीवारें मजबूत की गयीं
उनसे बेगमात के लिए बिल्लौरी हौज बने
उनसे दीवानखानों के लिए फानूस ढलवाये गये
उनसे मरमरी फर्शों पर इत्र का छिड़काव हुआ
उनसे इन्साफ के घंटे के लिए ठोस सोने की जंजीर ढलवायी गयी
और अब उन तमान बदनीयत अमीर उमरा के नाम
कत्ल का परवाना भेजा जा रहा है
ताकि खुदा के सामने पेशी के वक्त
पाक नीयत शहंशाह के जमीर पर
कोई दाग न छूट जाए

एक धुपधुपाती हुई मोमबत्ती
बिल्लौरी हम्मामों, अन्धी सुरंगों, खुशनुमा फानूसों, खौफनाक तहखानों
इत्र धुले फर्शों, चोरदरवाजों में से घुमायी जा रही है
दीवारों पर खुदे पुराने नामों की शिनाख्त के लिए
उनमें शहंशाह के हमप्याला हमनेवाला जिगरी दोस्तों के नाम हैं !

गजर बजेगा मायूस आवाज में
और सहर होते ही महल का मातमकदा खोल दिया जाएगा !
लटके हुए काले परदे, खुली हुई पवित्र पुस्तकें !

लोग मगर ज्यादा मुस्तैद हैं ताजपोशी के सरंजाम में
पायताने बैठे हुए लोगों का मातम में झुका हुआ सिर
ताज पहनने के लिए उठने का अभ्यास करना चाहता है !
मगर बादशाह ने हाथ के इशारे से लुहार बुलवाये हैं
वे ताज को पीट-पीट कर चौड़ा कर रहे हैं

कल सुबह जब ताज पहनने के लिए सिर एक-एक कर आएँगे
तब ताज कहीं बड़ा लगेगा और सिर बहुत छोटे
और एक-एक कर इन सिरों से ताज
और इन धड़ों से सिर उतार दिये जाएँगे

कल सुबह शहंशाह न होगा
पर बाद मदफन उस पुरमजाक बादशाह का
यह आखिरी मजाक अदा होगा
जिसे देख कर
हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगी वह तमाशबीन रियाया
जो हँसना खिलखिलाना जाने कब का भूल चुकी है !

या मेरे परवरदिगार
मुझ पर रहम कर !
बदनसीब खुसरू की आँखों में दागी गर्म सलाखों से
जियादा तकलीफेदेह है इस बेडौल असलियत को अपनी आँखों देखना
और इसके बाबत कुछ भी न कर पाना !

काश कि मैं भी अपनी निगाहें फेर सकता
मगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दीं कि मैं देखूँ
और मैं तेरे देने को झुठला नहीं पाता !
मौत किले के आँगन में घूम रही है
और वे हैं कि अभी किले की दीवारें ऊँची कर रहे हैं
खाइयों के पास कँटीले झाड़ बोये जा रहे हैं जिनकी जड़े
कब्र में दफन नौजवानों की पसलियों में फूटेंगी

ओ !
तूने मुझे क्यों भेज दिया इस पुराने किले में इस अँधेरी रात :
जहाँ मैं छटपटा रहा हूँ
उस बेचैन चश्मदीदी पुकार की तरह जिसे एक-एक शब्द के लिए
मोहताज कर दिया गया हो !

खा...मो..श !
खबरदा...र !!