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पुराना ख़त / किरण मल्होत्रा

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कोई पुराना ख़त
महज एक
पीला पड़ चुका
काग़ज़ का टुकडा
नहीं होता

दस्तावेज़ होता है
पीली पड़ चुकी
अनुभूतियों का
परिचित-सा
अहसास होता है
मंद पड़ चुकी
सम्बन्धों की गर्माहट का
साक्षी होता है
बह चुकी स्नेह- सलिला का

कोई पुराना ख़त
केवल ख़त नहीं
गूँज होती है
अतीत की
छाया होती है
जीवन व्यतीत की
पहचान होती है
खो चुके
व्यक्तित्व की