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पुलिया पर बैठा एक बूढ़ा / प्रेम शर्मा

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पुलिया पर
बैठा एक बूढ़ा
कान्धे पर
मटमैला थैला,
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज़
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.

बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहूलुहान हुआ है
सच और हक़ के
समर-क्षेत्र में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.

मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम-गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में अनजाने
सहसा उसके
क्षितिज कोर से
खारा-सा कुछ बह जाता है,
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से
बोतल निकालकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कड़ुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूँट-घूँट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा

उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
इक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चन्दन-गँध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता
दिवंगता है

रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज़ पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
वह बैठा बूढ़ा

तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख रहा
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हँसने लगता है
बालक भी
हँसने लगता है
दोनों छगन-मगन हो जाते,
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी ।