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पुश्तैनी कच्चा मकान / अनिल मिश्र

गाँव में था अपना
पुश्तैनी कच्चा मकान
झाड़ियों से घिरी डगर पर
बढ़ता जाता था आगे
उम्र के ढलान पर
अतिरिक्त सावधान यात्री
की तरह

बारिश के दिनों में
भीगे बैल सा सहमा
दुबका रहता था
किसी अनहोनी की आशंका में
आसमान की तरफ देखने से
चुराता आँखें

उसकी गोद में
आँखें बन्द कर छिपे
बहुत बाद पता चलता था हमें
वरुण और पवन के गुंडों का
हाहाकार

अधिक छूट दे देने के अपराध-बोध में
कभी-कभी लगा देता था
अनावश्यक चपत
सीधी मुंडी हमेशा रखने की
करता हुआ ताकी़द

ग्रीष्म में तपती दोपहर सा
जब भी आ धमकता सुबह-सुबह
वसूलने मालगुजारी
तहसीलदार का चपरासी
दौड़कर अन्दर से लाते हम
उसके लिए गुड़ और पानी
इधर-उधर झाँकते
करने लगता घर
दुर्गा सप्तशती का पाठ

अछूत समझकर
लगातार बख्शते
सेंधमार चोरों के
शुक्रगुजार हैं हम
दुनिया की नजर में
बने रहे फिलहाल
एक खाते-पीते घर

वैशाख और जेठ में
महुए की लप्सी
सावन में बनते ठोकवे उसी के
काट देते काठ के दिन
काले पहाड़ सी भादों की रातों में
पकती घनी नींद की कोदों
और नीम के गिरते फलों के बीच
पधारते दिल्ली-लखनऊ से
बड़े-बड़े नेता
बैठे-बैठे चारपाई पर तय करते
रुस और अमेरिका का भविष्य

देश और दुनिया की
बड़ी-बड़ी बातों के रस में डूबा
भूल जाता
गृहस्थी के टाट में
जगह-जगह हुए छेद
अजगर सी लपेटी दुश्वारियों को
प्राणों की सारी शक्ति से छुड़ाता
बीच कहीं सबके-सार्वजनिक
देखने लगता घर
मुंगेरी लाल के हसीन सपने