पूछा था एक बार “सागर क्यों खोले धवल ऊर्मि-अंचल।
स्फटिकोपम उर को चूम-चूम जाती थीं विधु किरणें चंचल।
पूछा, “हे प्राणनाथ! विकला सरिता क्यों भागी जाती है ?
क्यों नित सागर से मिलनातुर श्रम-सीकर-बीच नहाती है” ?
पूछा “क्यों कुमुद-कली सारी निशि प्रिय! मयंक-संग खेली है”?
बोले “निद्रा अपनी, सपना पर का, अनबूझ पहेली है”।
ले खड़ी पहेली सावरियाँ! बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥99॥