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"पूछे तो कोई ये जाकर / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

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उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
 
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शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
 
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ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
 
ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से</poem>
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{त्रैमासिक अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2009 / हिंदी-चेतना, अप्रैल 2010}
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14:37, 27 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

पूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
हासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से

रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से

पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से

हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से

जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से

उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से

ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से

{त्रैमासिक अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2009 / हिंदी-चेतना, अप्रैल 2010}