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पूजा और फूल / रामदरश मिश्र

साहित्यकार तो गुरुदेव भी थे
लेकिन पुजारी भी थे-घोर आस्थाशील पुजारी
जब मैं उनके साहित्याश्रम में प्रविष्ट हुआ
तब उन्होंने मुझमें न जाने क्या देखा कि
सुबह-सुबह पूजा के लिए
पास के छोटे से उद्यान से
गुलाब के फूल तोड़ लाने का दायित्व मुझे सौंप दिया था
उद्यान में गया तो
गुलाब के फूलों ने मुझे अपने में समेट लिया
और रंगों तथा खुशबुओं की भाषा में बतियाने लगे
देर तक इनका होकर इनके बीच घूमता रहा
एकाएक गुरुदेव का आदेश कौंध गया
मैं असमंजस में पड़ा रहा
आखिर निर्मम होकर कुछ फूल तोड़ने ही पड़े
अंगुलियों में काँटे चुभ आए
मैं थोड़ा उद्विग्न हुआ
लेकिन मेरा कवि हँस पड़ा, बोला
सौंदर्य पाने के लिए पीड़ा तो सहनी ही पड़ती है
अब ज़रा अपनी अंगुलियाँ महको
महका
काँटों के दंश के साथ अंगुलियाँ महमहा रही थीं
जो लोग बाज़ार से फूल खरीदते हैं
उन्हे चुभन तो नहीं होती
लेकिन उनकी अंगुलियाँ नहीं महमहातीं
गुरुजी की पूजा के लिए मैंने फूल तो तोड़ लिये
लेकिन सोचने लगा कि
यह कौन सी पूजा है जिसके लिए
हँसते-महकते फूलों की असमय हत्या कर दी जाय
और फिर उनकी पंखुड़ियाँ
इधर-उधर कूड़े के ढेर पर फेंक दी जाएँ
दरअसल भगवान तो
अपने द्वारा सृजित इन फूलों में ही बसते हैं-
हँसते-महकते हुए।
-24.3.2015