गहरी थकान और हताशा लिये
झुके कंधे गर्द भरे चेहरे पर
आहत उम्मीदों की लहूलुहान खरोंचे
आंखों के कोये में
समुद्री नमक का भहराता टीला
होठों पर मुर्दा चुप्पी लिये
लौट आये हैं पिता सपनों की शवयात्रा से
राख की बंध में लिथड़े
पिता के चेहरे की ओर
कैसी कातर
कितनी असहाय आंखों से देखती है मां
किस अतल से निकला है यह निःश्वास
जिसमें मौत सी ठंडक है
ओ मां! मैं कहां जाऊं
किस पाताल
कुएं में डूब मरूं बोलो
क्यों नहीं आती मुझे मौत
जब बेमौत मरते हैं इतने लोग
आता है भूचाल दरक जाती है धरती
औंधा गिर जाता है आसमान
नमक पानी के पारावार में
तिनके-सी बह जाती है ज़िन्दगी
तब ऐसा कोई सूनामी
मुझे क्यों नहीं बहा ले जाता...मां?
मैं हरगिज़ नहीं चाहती पिता की सांस में
फांस बनकर जीना
तुम्हारी छाती पर अडिग पहाड़ बनकर रहना
भाभी की आंखों में शूल की तरह चुभना
भाई की अनकही पीड़ा में
पतझड़ के उदास रंग की तरह दिखाना
लेकिन मैं क्या करूं मां
मेरे बस में नहीं है
यह सब न होना
कभी-कभी
इस धरती की ढहती दीवारों से लगकर खड़ी
मैं सोचती
क्या मुझे अपनी लड़ाई लड़े बिना
हार मान लेनी चाहिए
अपनी इच्छाओं अपने सपनों की पहरेदारी पर
कोई सवाल नहीं करना चाहिए
मां! मैं जानना चाहती हूं तुमसे
इस आंगन के उस पार
वह जो एक बहुत बड़ी दुनिया है
जीवन के समानान्तर
क्या उसे देखने का मुझे हक नहीं
बताओ मां
क्यों चढ़ी है आज भी इस घर की ड्योढ़ी पर
इतनी मज़बूत सांकल
जिसे हिलाते हुए
कटी डाल की तरह झूल जाती हैं मेरी बांहें
पस्त होता है मेरा हौसला
मां मैं तुम्हारी तरह
किसी जर्जर हवेली की बदरंग दीवारों पर
लतर बेल बनकर नहीं पसरना चाहती
मैं पीपल बरगद आम कटहल की तरह
पूरी की पूरी एक पेड़ बनना चाहती हूं
इच्छाधारी अस्तित्वधारी एक पेड़
तुम देख रही हो किस तरह
ठूंठ हो गए हैं आज पुरखों के लगाये सब पेड़
कब तक इनकी सूखी जड़ों में पानी देती तुम
अपने लगाये पेड़ों को निपात होते देखती रहोगी
बोला मां बोलो!