भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेंजई-1 / त्रिलोक महावर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:57, 13 अगस्त 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीठ फेरते ही
वे दाग देंगे
दस-बीस गोलियाँ
और एक खंजर
उतार देंगे आर-पार
ऐसी उम्मीद तो कतई न थी

बातें सब तय हो चुकी थीं
ढाई इंच की मुस्कान के साथ
कहा था उन्‍होंने 'बाय'-
कल फिर मिलने का वादा था
पर कल के लिए
कुछ भी बाक़ी नहीं छोड़ा था उन्होंने

यक़ीनन भरे होंगे
किसी दोस्त ने कान
कान का भरा जाना उतना
ख़तरनाक नहीं है
जितना कान का कच्चा होना

एक अर्से बाद जब होगा उन्हें अहसास
कि वे ग़लती पर थे
तब तक पेंजई<ref>पेंजई के फूल बसंत में खिलते हैं। इन फूलों की पंखुड़ियों में मानव के सिर का कंकाल डरावना दिखाई देता है। इन फूलों को देखते हुए लगता है मानो बगीचे में स्केल्टन ही स्केल्टेन पंखुड़ियों पर छा गए हैं।</ref> के फूलों में
उभरे स्केल्टन हो चुके होंगे
हम।

शब्दार्थ
<references/>