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एक कुएँ में दुनिया थी, दुनिया में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैने मैंने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ...
मेढकी मेंढकी मेरी जाँ, तू वहाँ, मैं यहाँ
तेरे चारों तरफ़ ईंट का वो समाँ
मैं मरा जा रहा, ये खुला आसमाँ
आज सोचा कि खुल के ज़रा साँस लूँ
बाज देखा तो की याद नानी था मैं
कींचडों कीचड़ों में पडा पड़ा मन से कितना लड़ाहाय कूँवे कुएं में खुद अपना सानी था मैं
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज आवाज़ खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
</poem>
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