Last modified on 14 अप्रैल 2009, at 07:30

पेड़ / के० सच्चिदानंदन

कोई कभी कह नहीं सकता
कि कब पेड़ चलना शुरू कर देंगे
और कहाँ के लिए
उनके पैर खास तत्पर हैं और
उनके हाथ झूम ही रहे हैं
उन्हें याद हैं
वे जगहें जो उन्होंने छोड़ीं
और मालूम है पता वहां का
जहाँ पहुँचाना है

चिडियाएँ चढ़ती-उतरती भर
नहीं हैं पेड़ों पर
पेड़ उन्हें अपनी शाखों
के इशारे से बुलाते हैं
और उन्हें उनके नामों से पुकारते हैं
पेड़ों के ऊपर लगा फलों का मेला
उन्हें निमंत्रित करना बंद कर देता है
तब भी कुछ कृतज्ञ पक्षी
ढांपे रहते हैं उन्हें
सर्दियों में गर्म रखने के लिए
पेड़ न अस्तित्ववादी हैं
न आधुनिकतावादी
फिर भी उनके पास विचार तो हैं
ये वो बात है जिसे हम कलियों के तौर पर देखते हैं
उन्क्की कामनाएं फूल हो जाती हैं
जितनी दूर तक उनके पास वसंत कि याद है
वे बुढ़ापे कि शिकायत नहीं करते
जब स्मृति का अवसान होने लगता है
वे छोड़ देते हैं दुनिया
अपनी पत्तियां गिराते हुए

जब मृत्यु आती है
वे चुपके-चुपके झुक जाते हैं आगे की ओर
जैसे वे गिलहरियों के लिए झुकते हैं
जैसे ही वे गिरते हैं वे भेजते हैं
एक अवशेष धरती के जरिये
अपनी अनावृत जड़ों से
एक नवांकुर
अपने बालसुलभ आश्चर्य में धरती को टकटकी लगाकर देखता है
सूर्य उसे आशीष देता है
पक्षी उसकी मंगलकामना में गीत गाते हैं

जन्म की खुशी मनाने के लिए
बिस्मिल्ला खां अपनी शहनाई बजाते हैं
सातवें आसमान से


मूल मलयालम से स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी में अनूदित. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद: व्योमेश शुक्ल