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पेड़ / दीपाली अग्रवाल

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 युद्ध के दिनों में शांति पर लिखीं कविताएँ
बिछोह में लिखा गया सबसे सुंदर श्रृंगार
बढ़ते पानी में लिखीं बाढ़ की विभीषिकाएँ
और घटते पानी में सूखे की संभावनाएँ
बहुत कुछ था जिस पर कविताएँ कही गईं
सुनी गईं, गुनगुनाई भी गईं
सूरज भी चमका, फूल भी महका
प्रेमिका मिली, दिल भी बहका
नेताओं के हिस्से उलाहना आयी
जनता के हिस्से संवेदना आयी
कविताएँ सीमा के परे भी पहुँची
और मन के खोल में भी रहीं
लेकिन
समाज को सींचने वाली कविताओं ने
वृक्ष क्यूँ नहीं सींचे?
निबंधों से भरे एक पन्ने के सिवा
और क्या मिला उन्हें,
यूं, पन्ने की जगह सींचा जा सकता था एक पेड़
पेड़ ही तो थे कभी वे पन्ने
नदी, झरने, पर्वत, घाटी के सौंदर्य पर
मर-मिटने वालों
हे! छायावादी कवियों
कितने भीगे तुम्हारे पृष्ठ
जब गिरा था कोई पेड़