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पौ फूटी है / सुदर्शन प्रियदर्शिनी


क्षणे क्षणे
पौ फूटी है
छतों के
पूर्वी माथे पे -
दीप्त हो गई
हैं भितियाँ
कुनकुने -जल
मैं सुबह सुबह
प्लावित
हो कर
उषा सी
मुस्का रही है -
कहीं सुदूर
यही किरने
किसी घाट के
मन्दिर की
बुर्जिओं पर
बैठी होगी _
कहीं माँ की
उठती हुई
सबेर पर
सिर निकाल कर
उसे -उदीप्त
कर रही होगी ....
कहीं मेरे
स्कूल की
पगडंडी पर
मेरी सहेलियों
के - सुबह -सुबह
नहाये हुए
अध्- गीले बालों
मैं -मोतियों सी
लटक गई होगी
और उन के
चेहरों से
अठखेलियाँ करती
खिलखिला रही होगी --
एक ही पौ
फूटती है
और कम से कम
ब्रह्मंड का आधा
हिस्सा
जगमगा -उठता है
उस समय सूरज
तुम
अपने पास
क्या बचा कर
रखते हो
बुझाने अपना
छेमाही- त्रास -
इतनी दूर
बैठी तुम से -
नही कर
पाती - मैं
यह सोच या क्यास ...