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प्यार करें / कुबेरनाथ राय

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आओ परस्पर सहज बनें।
तुमने ही तो कहा था : होने दो रात
मैं हो जाऊँगी सहज और आत्मस्थ
दिवस का यह तप्त-चक्षु सहजता का विरोधी
अत: कवच पहने रहना। दृढ़ धातु बने रहना ही ठीक
अतः होने दो रात
मैं हो जाऊँगी सहज, हो जाऊँगी प्रकृत
और स्वस्थ्य।

और अब,
आ गयी यह रात
उलूकमुखी, शृगालमुखी, अप्राकृत रात!
नीबी विघटित अप्राकृत रात!
तो भी आओ कम से कम हम और तुम तो
परस्पर सहज बनें!
पेड़ों की छतनार शाखाओं पर बोलते हैं उलूक
हमारा ही नाम ले रहते हैं।
काल का अशुभ काव्य पढ़ते-पढ़ते
आजीवन असगुन बाँचते-बाँचते
मैं हो गया हूँ अब पत्थर और निर्विकार
तुम आओ
हम परस्पर सहज बनें!

चमगादड़ों की पांतें झपटती रहें
गादुड़ों के भोज और मलत्याग चालू रहें
सुन रहा हूँ मरनी महीरुहों के अरण्य-रुदन
साथ ही पितरों के परस्पर अश्रुपात!
तो भी कोई बात नहीं,
विकल है प्रकृति आज
विकल है इतिहास
सब कुछ मरता है, मर्त्‍यों के लोक में
पर प्यार नहीं मरता है जन्म-जन्मान्तर
हृदय की एक बूंद जन्म प्रतिजन्म के उद्धार कर देती है
अत: इस नीबी-विघटित, महा अशुभ बेला में भी
आओ परस्पर सहज बनें,
प्यार करें।