भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्यार के परचम / सुभाष चंद "रसिया"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

डबल सिम की जइसे लगाल अपनी दिल की फोन में।
हे जानम प्यार के परचम, लहरा द रिंगटोन में॥

साँझ के ढूंढ़ी रात के ढूँढी, ढूँढी होत फजीरे,
गंगा जी के तट पर ढूँढी, ढूँढी यमुना तीरे,
अँखियाँ से निदिया उड़ा के गइल आवारा कजरा,
दिल में उठेला मिलन के धूवाँ ये बसन्ती गजरा,
भईल अवारा पागल दिलवा, काशी के अब जोन में॥
हे जानम प्यार के परचम॥

दिल के भीतरिया उठे लहरिया, नईया चले धीरे।
सावन की मदमस्त घटा, चारो तरफ है घिरे।
तन भी भीगे मन भी भीगे-भीगे सगरी काया।
दुनिया के हर न्यामत से बड़ा है प्रियतम पाया।
कस्तुरी के जइसे ढूँढी, तोहके सगरी ज़ोन में॥
हे जानम प्यार के परचम लहरा द रिंगटोन में॥