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प्यार के लिए अढ़ाई कोस धूप / अंचित


धूप के अढाई कोस शहर और वर्णमाला के अढाई अक्षरों के बीच
स्पष्टता का वीराना पड़ता है। मेरी जगह कौन-सी है?
कौन-सा कोना है जहाँ से बिना किसी को निकाले खुद को फिट कर सकता हूँ?
सवाल इंतजार करते हैं कविता का, जैसे तुम्हारे इंतजार में खड़ा रहता हूँ
उड्हुल के एक गाछ के पास, सामने सड़क है, कीचड़ है, पानी है,
एक मोटर गुजरी है अभी और तुम्हारी गंध थामे हवा ने रुख किया है मेरी ओर।
गंगा में घाट उतरते ही घात लगाए बीस-बीस फीट के गढ़हे हैं
पानी को एक मौका मिला और आपका माथा फिर धूप में कभी नहीं चमकेगा।
उजाड़ है सब, बसते हुए भी, जहाँ से देखता हूँ, हम कहाँ बचते हैं भागने से प्रेम करते हुए भी।
तुम्हारे हाथ पर जले हुए के निशान हैं, तुम्हारी आंखें नींद से भारी हैं, तुम सोच रही हो मुझको
जिया जा सकता है इतनी ही दूर में, इतना आसमान काफी है चमकने के लिए
कवि उन्मुख हो प्रेम करने के लिए और दिन के सब पहरों में कम से कम एक पहर मुख मोड़ सके त्रासदियों से।
बादशाह की गद्दी से बादशाह की कब्र के बीच में जाने कितनी लाशें हैं
देख सको तो ईश्वर के महल से ईश्वर के किले के बीच भी देखना तुम
लंबी-घनी सुरंगें विचारधारा की, मशालें ढाई-ढाई कोस पर। किधर मुड़ गए?
पूरा दिन सरकता है मिलते हुए प्रदूषण से पेड़ों के झुरमुटों में, तुम बंधी मेरी कलाई पर
आज रात तुम्हारी आवाज नहीं आएगी, न कल रात और मैं तुम्हारे न होने में कविता खोजूंगा,
अपने अंधेरे में खोजते हुए बिजली का स्रोत, हम सूरज की चिरौरी करेंगे जब तक जिएंगे।
इसका कोई मतलब नहीं बनता
मैं भूल जाता हूँ मुझे क्या लिखना है—असंतुष्ट-सा, जलता हुआ, स्लिगल और सरल के बीच झूलता हुआ
शवयात्रा के आगे झुकते हुए याद आता है ईश्वर खेत हो गया, त्रासदियों का युद्ध कई बार खेला गया इसके बाद।
सब शोर थम जाता है, तुम गाती हो जब फुसफुसाती हुई-सी, मेरे कानों में।