भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रकृति / कुलवंत सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सतरंगी परिधान पहन कर,
आच्छादित है मेघ गगन,
प्रकृति छटा बिखरी रुपहली,
चहक रहे द्विज हो मगन।

कन-कन बरखा की बूंदे,
वसुधा आँचल भिगो रहीं,
किरनें छन-छन कर आतीं,
धरा चुनर है सजो रहीं।

सरसिज दल तलैया में,
झूम-झूम बल खा रहे,
किसलय कोंपल कुसुम कुंज के,
समीर सुगंधित कर रहे।

हर लता हर डाली बहकी,
मलयानिल संग ताल मिलाये,
मधुरिम कोकिल की बोली,
सरगम सरिता सुर सजाये।

कल-कल करती तरंगिणी,
उज्ज्वल तरल धार संवरते,
जल-कण बिंदु अंशु बिखरते,
माणिक, मोती, हीरक लगते।

मृग शावक कुलाँचे भरता,
गुंजन मधुप मंजरी भाता,
अनुपम सौंदर्य समेटे दृष्य,
लोचन बसता, हृदय लुभाता।