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प्रतिदिन / सुकुमार चौधुरी / मीता दास

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चोरों की तरह हर रोज़ चोरी किए सामान में से मैं
ले आता था जी० आर० के टूटे गेहूँ के कण
कनकी और बाजरे के टूटे दाने।
 
लंगर खाने के सामने की लम्बी कतार में
छोटे भाई को कड़ी धूप में खड़ा देखकर
बेहद मन करता है
धर दूँ उसके नन्हे हाथों में रंगीन मीठी गोलियाँ,
सस्ती चाकलेट।

पर ख़ाली जेब में हाथ डाले
लज्जित होता रहता मै।
धीमी आग की तरह सुलगता रहता
अपमान बोध।

शाम को जब माँ हमें टीन के टूटे कटोरों में धर देती
धुआँ उगलता गरम-गरम गेहूँ का दलिया
और हम उसे चाटते-चाटते
मै और मेरे भाई-बहन
बड़े हो जाते, प्रति दिन, थोड़ा-थोड़ा।

मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास