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प्रतिशोध / लता अग्रवाल

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सखि द्रोपदी!
" कहो, खुलकर अपनी पीड़ा
क्या गुजरी थी तुम पर
नयी ब्याहता तुम अर्जुन की
एक पल में कुंती के कहने भर से
पाँच पतियों की
अर्धांगिनी बना विभाजित कर दी गईं
पाँच पुरुषों में?

कहो याज्ञसेनी!
उस रोज़ कैसे
खण्ड-खण्ड हुआ स्त्रीत्व तुम्हारा?
तुम्हारे अपने जीवन का
ऐतिहासिक निर्णय और किसी ने
तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा जानना भी
उचित नहीं समझा!
कैसे सहा होगा वज्राघात?

हे कृष्णा! कहो,
कैसे बांटी तुमने संवेदनाएँ अपनी
पाँच पतियों में?
एक पति के स्पर्श को
दूसरे पति के स्पर्श से
कैसे रखा अछूता?
जब बदलते थे अंक
तब क्या तुम रह पाती थीं सहज?
हे सौन्दर्य की हस्ताक्षर!
क्या मिला उत्तर तुम्हें कि
पतिव्रता नारी को पूजने वाले
समाज ने क्यों नहीं उठाई आवाज
कैसे कर लिया स्वीकार
इतिहास का सबसे कलंकित फ़ैसला?

हे पांचाली!
बताओ पीड़ा अपनी
दोगले समाज को
बता दो सबको
कैसा पिघला था तेजाब हॄदय में
जब कर्ण ने तुम्हें
पाँच पतियों वाली वेश्या कहा था?
कितना असहाय पाया था तुमने
उस रोज़ स्वयम को
जब युधिष्ठिर ने दाव पर हारा था।

हे द्रुपद कुमारी!
बता दो समाज को क्यों कर
पांच पतियों की पटरानी
होकर भी कैसे
दुर्योधन, दु: शासन
जरा संघ, कीचक की
कुदृष्टि का शिकार होना पड़ा
पांच-पांच वीर पतियों की
पत्नी होकर भी ख़ामोश रह
अपमान सहना पड़ा?

हे सैरंध्री!
दिखला दो, दिल की वेदना
कुरुवंशों की सभा में
कैसे चीख-चीख कर मांगी थी दुहाई
अपने सम्मान की,
फालिस मार गया था
सम्पूर्ण सभा को।
द्रोण, भीष्म, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र
यहाँ तक कि नीतिकार विदुर का
नीति सागर भी कैसे सिमट गया?
यही दुराचार यदि
धृतराष्ट्र की आत्मजा 'दु: शाला' ,
कुल वंश गुरु द्रोणाचार्य
की सुता 'जयति'
संग होता तब भी क्या सभा मौन रहती?

हे करुवंश वधू!
काल भले ही
त्रेता से कलयुग में
परिवर्तित हो गया हो
किन्तु हे अग्नि गर्भा!
आज भी द्रुपद की पुत्रियाँ
रूढ़ियों की अग्नि में रोज़ नहाती हैं
ब्याहकर आई नव यौवनाएँ
बिना उनकी सहमति
बाँट दी जाती हैं
दायित्वों के छोर से
विवश हैं आज भी कुलवधुएँ
खण्ड-खण्ड जीवन जीने को
क्या घर क्या बाहर आँख गड़ाए बैठे हैं दुर्योधन
चीर हरण को आतुर हैं
दु: शासन
मौजूद हैं आज भी कई युधिष्ठिर
अपने मान-सम्मान की खातिर
दाव पर लगाने अपनी द्रोपदी
व्यवस्था धृतराष्ट्र बनी
अपनी लाचारी को रोती है,
परिजन (सभासद) चिंता में अपराधबोध से
झुकाए नजरें ख़ामोश हैं।
आज भी सम्मान की सूली पर
द्रोपदी ही चढ़ाई जाती है...,
गिनाये जाते हैं उसके दोष!

हे महाभारती!
लगता है अपने रक्षार्थ
आज भी
द्रोपदियों को अपने केश खोल
लेनी होगी शपथ,
दुर्योधन और दु: शासन के लहू से नहलाने की
एक द्रोपदी का प्रतिशोध
इतिहास ने झेला है
अब द्रौपदियों का प्रतिशोध भविष्य देखेगा।