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प्रत्यूष पर्व / अमरेंद्र

Kavita Kosh से
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सबको अचरज इसी बात का यह परिवर्तन क्यों है,
गंगा की लहरों पर सप्तम स्वर का नर्त्तन क्यों है?
कोशी की गति में मल्हार का क्यों संगीत सजग है?
चानन का भी राग मेघ-सा दिखता अलग-अलग है।

चीर चली है गाती कजरी, बड़ ुआ झूमर गाए,
चैती गाते देख क्यूल को, कोयल खूब लजाए;
स्वर्णसरित कोयल के स्वर में पंचम राग निकाले,
अजय, मोरखी इस अवसर पर कैसे हर्ष सँभाले!

आज मान का मान शिखर पर हर्षित कलकल-छलछल,
महानाद-सी रीगा की भी लहरों में है खलखल;
शक्तिमती की खुशियों की सीमा है कहाँँ दिखाती,
आज ब्राह्मणी, बंसलोई को कितना है हर्षाती।

अंग देश की सीमा में नदियों का कैसा उत्सव,
उधर मेघ-मालूर वनों में चिड़ियों के भी कलरव;
चम्पावन में मौलसिरी का मेला लगा हुआ है,
बिना किसी रमणी को देखे कुरवक खिला हुआ है।

कोविदार, कचनार, प्रियंगु का, केसर का है मेला,
बैठा है अवसाद कहीं पर बिल्कुल अलग अकेला;
कहीं शिरीष हँसी से पागल, कहीं केतकी गमगम,
चम्पा की माटी झूमर-सी नाच रही है छमछम।

अंगदेश के सागर-तट पर ज्वारों का है उत्सव,
भाटाओं पर लहरें नाचे; ज्यों शिव का हो तांडव,
ऊँचे-ऊँचे पर्वत के आनन पर हँसी थिरकती,
किसी दिशा से चले हवा, बहने के पूर्व सँवरती।

एक समय में सब ऋतुओं का उत्सव एक जगह पर,
अपनी-अपनी लिए विभूति को सतयुग, त्रोता, द्वापर;
अंगराज के अंग पहुँचते सब कुछ नया-नया है,
कौन रंगोली, धूप, दीप से चम्पा सजा गया है?

रत्नों के, आभूषण के, वसनों के रंग निराले,
चलता है तो इन्द्रधनुष को नभ में नगर उछाले;
हर मंदिर, हर मठ के ऊपर उड़ती हुई पताका,
दिन लगता है चम्पा का; ज्यों, बिछी हुई हो राका।

देवनदी के तट पर खिलता कंचन-दान-कमल है,
जहाँ शांति है डेरा डाले, कहीं नहीं हलचल है,
जैसे पूरब, पश्चिम, उत्तर पर मोदों के पहरे,
वैसा ही दक्षिण भी प्रमुदित पुलक-कंप से सिहरे।

क्या नगरों के नागर जन ही, क्या वन के वनवासी,
क्या इन सबसे दूर बसे वे पर्वत के संन्यासी,
सबके भाग्य शिखर पर शोभित, कोई दीन नहीं है,
कर्णराज्य में कौन मनुज, जो सुख में लीन नहीं है?

घर-घर में है लोक-वेद की मिली हुई चर्चाएँ,
तन्मय होकर सुनतीं मठ-मंदिर में लगी शिलाएँ;
नगर-नगर और गाँव-गली में लक्ष्मी घूमा करती,
हंस छोड़ कर विद्यादेवी सबके यहाँ विचरती।

वर्णहीन हो वर्ण चतुष्टय नये धर्म का स्रष्टा,
आदिकाल को ढाल रहे नर अंग देश के त्वष्टा;
कीर्तिकथा बलि, अंग और दधिवाहन-सा दिविरथ की,
कहीं धर्मरथ और चित्रारथ की चर्चा इति-अथ की।

सिर्फ सत्यरथ, रोमपाद की गाथा नहीं घनी है,
इसमें चतुरंग, पृथुलाक्ष की भीगी सुरभि सनी है;
चम्पा की मृदुगंध लिए चलती है चम्प-कथाएँ,
जैसे कि हर्यंक-गान ले बहती विविध हवाएँ।

राजकाज से मिलते ही अवकाश, कर्ण चलता है,
दूर दुर्ग से गिरि-कानन में स्वर्ग जहाँ मिलता है;
चलते-चलते सागर-तट तक घूम चला आता है,
कर्णराज का दुर्ग जहाँ ज्वारों से टकराता है।

वही पूर्व-सा चम्पा की गंगा में ज़रा उतर कर,
बंद दृगांे से भोर-साँझ को देखा करता दिनकर;
जहाँ जेठ-वैशाख चैत-से लगते सुखद-सुहावन,
पूस-माघ फिर लौट-लौट कर बन जाते हैं अगहन।

उठते हुए सघन वन लगते बादल झुके हुए हैं,
मल्लयुद्ध को वसुधा भर के योद्धा रुके हुए हैं,
या फिर गिरि पर झुंड गजों का इस्थिर सूँड़ उठाए,
नील-मणि के लघु-लघु गिरि ही चंचल हों, दिखलाए.

आठ वर्ष बीते कब कैसे, प्रिया समझ न पाई,
पीछे-पीछे दौड़ रही थी नटी नियति-परछाई,
और वृषाली को सुध थी क्या पाकर कर्ण-प्रणय को,
मुट्ठी में ले घूम रही थी तीनों लोक-विजय को।

बीते पक्ष, माह पर वत्सर; समय निकट वह आया,
राज्यादेश नये भूपति का दिक् ने पढ़ा, सुनायाµ
अंगनृप वृसषेन बनेंगे, बरसे कुसुम गगन से,
देश-देश ने पाया है संदेश पवन और घन से।

गूँज उठे आधारित, दुन्दुभी, गोमुख, आदि, पटह भी,
चंचल है सरिताएँ ही क्या? जमे हुए सब दह भी।
फिर तो काल भेद से गूँजे सुर-रागों के सप्तम,
ऊँचे-ऊँचे कहीं चढ़े, तो नीचे-नीेचे; मध्यम।

भू सिंचित कर अभी गया है बादल दूर गगन से,
कस्तूरी ले आये थे मृग चल कर चम्पावन से;
लुटा रहे हैं कुसुम सुरभि को तीन पहर पहले से,
अंगदेश ऐसा लगता है, पारिजात हो जैसे।

मंत्रोच्चारण विहगों का, वन में वन्दन है गज का,
शंख फूँकतीं गायें रह-रह, पहरा है मलयज का,
बाँस-वनों की वंशी की धुन लोक-लोक से सुंदर,
बजते हैं चम्पा के मन में घुँघरू, पायल, झूमर।

रंगशाला में रखे रह गये आजा-बाजा-गाजा,
अंगदेश का बनने वाला जो वृसषेन है राजा;
जुटे भूप गण प्रांत-प्रांत से रथ रत्नों से भरकर,
लौटे आखिर उन रत्नों को जहाँ-तहाँ ही धरकर।

लुटा रहे हैं दीन-हीन भी स्वर्ण-रजत को खुल कर,
अजब तरह का भाव जगा है, अजब तरह का वामर,
सबके अधरों पर यश की ही गाथा कर्ण बली की,
आज भुवन के सम्मुख सुरपुर की भी महिमा फीकी।

लौट रहे स्वदेश महीधर, जो थे जहाँ से आये,
गाते हुए विरुद रविसुत के, मन से भरे अघाये।
इससे भी तो अधिक अघाया आज कर्ण का मन है,
मन गरुड़-सा बना हुआ है, नीचे नील गगन है।

हृदय बहुत हल्का लगता है, दुख का भार घटा है,
घुमड़ रहा था करका घन जो, जाकर आज छटा है।
नये पंख थे नये समय के; दिखता; तुरत अलोपित,
इसका भी कुछ बोध कहाँ था, कर्ण रहा यूँ मोहित।

ऋतुएँ आई ं, चली गई ं, दस बारहमासा बीते,
वह सब भरे-भरे-से लगते, जो कुछ रीते-रीते,
प्रिया वृषाली के संग में सब बातें होतीं मन की,
कृष्णा के स्वयंवर से लेकर जलते खांडववन की।

मिला पांडवों को कैसे वनवास; कथा क्या पीछे,
कैसे कौरव भाग्य उठा था, कैसे पांडव नीचे,
लेकिन अब भी कोई है जो लग जाता है पीछे,
यही कर्ण को लगता है वह पकड़ बाँह को खींचे।

फिर तो रविसुत दूर वृषाली तक से भी हो जाता,
हाँक लगा कर चंपा का वन, बाँहे खोल बुलाता,
दौड़ाती ज्यों कस्तूरी है वन में चकित मृगा को,
भूल कहीं भटका करता मन चंपा की वसुधा को।

ऐसे में तो राजभवन के राजकाज सब बेरथ,
मर जाता है बिना क्रोध के मधुऋतु में ही मन्मथ,
जग उठता है मन का वह वैरागी भाव कहीं से,
विगत वेग की अंगड़ाई ले उठता जाग वहीं से।

ऐसे में सचमुच ही होता कितना कर्ण अकेला,
कंचन कर में पड़ा हुआ हो; जैसे, एक अधेला।
लगता है कुंजरपुर में ही उसका आधा तन है,
बहने लगता उसी ओर तब मन का मृदुल पवन है।

कितनी यादें ले आते हैं, वन, उपवन का निर्जन,
योगी-सा बैठा ही रहता प्राणों का कर आसन।
आती रहती सुधियाँ सारी पंखों को छितराए,
कर्ण पकड़ना चाहे जिनको, पकड़ कहाँ पर पाए.

कुछ टूटी-सी बनी लकीरें चित्रा अधूरा-सा हो,
होता जाता सिन्धु अगम है, जितना उसको थाहो।
रेखाओं का रंग जामुनी जैसे-जैसे होता,
चिन्ताओं-शंकाओं के सागर में उसे डुबोता।

और वही फिर सुधियांे की पुरबा-पछिया झांेके,
सौ छवियों की धूप-छाँह की आँधी ही अनचोेके,
भद्रासन की साज-सजावट गीतों की बरसातें
दिन की चमक भले मोती-सी, मणि जैसी ही रातें।

फगुआ, सतुआनी के संग में दुधिया घोर दिवाली
सौरभ बाँट रहा चम्पा में चम्पा भर-भर प्याली;
सजे हुए रथ, अश्वारोही, ऐरावत भी ऐसे,
पथ के रजकण, महमह-गमगम, गुग्गुल, धूप, मलय से

खड़ा कर्ण है भद्रासन के पास, अभी कुछ होता,
किसने कहा कि कृष्णा को क्यों भेजा गया न न्यौता!
और वही फिर सुरभि हँसी की छूकर निकल गई थी।
कुछ कहने में सचमुच क्या वाणी ही फिसल गई थी?

किसने कहा था? कहने में क्या कोई अर्थ छिपा था?
तिल भर की जो बात लगी थी, वही अभी क्यों गाथा?
पकड़ बुद्धि की डोर कहाँ-से-कहाँ कर्ण है जाता,
तम अछोर है, जिसमें झिलमिल एक लोक दिखलाता।

अभी-अभी देखा है उसमें वंकिम रूप-छटा को,
शशि को अपने बीच छिपाए घिरती श्याम घटा को;
तत्क्षण सब कुछ लाँघ कर्ण जा पहुँचा हस्तिनगर में,
कितना शोर भरा था भीषण पल्लव के मर्मर में!

सुधि आई, जब कृष्णा ने बातों में कभी कहा था,
दुर्योधन की दारा से। वह सोच नहीं कुछ पाता।
यही कहा था, ' स्वयंवर से पहले जो चित्रा मिले थे,
उनमें चित्रा कर्ण का देखा, तो फिर प्राण खिले थे।

बहन, तुरत मैंने 'हाँ' कह दी, कुछ भी बिना विचारे,
मैं धँसती ही गई धार में, छूटे सभी किनारे। '
" तो फिर ऐसी बात हुई क्या, ज्यों स्वयंवर में आई,
'सूतपुत्रा स्वीकार नहीं है' , देख मुझे चिल्लाई.

" पहले भी तो यही भाव मन मंे अक्सर है आया,
सोचा जो कुछ, वही सत्य था, भूल नहीं हूँ पाया,
रह-रह कर यह प्रश्न हृदय में ऐसे क्यों उठ जाता,
पांडव से पहले केशव का चित्रा वहाँ दिखलाता।

" लेकिन जो कुछ हुआ ठीक था, उसको क्यों छल मानूँ,
जो अनीति है, उस पर क्यों अब अस्त्रा-वाण को तानूँ!
जीत अगर मेरी ही होती, तो कृष्णा क्या होती?
मुझसे दूर सुयोधन-गृह के स्वप्नभार को ढोती।

" मेरा लक्ष्य सुयोधन-हित था, कृष्णा के संग छल था,
हस्तिराज के लिए समर्पित मेरा कार्य विफल था।
अब भी हूँ मैं ऋणी सुयोधन का ही, मित्रा अकेला,
मुझे तोड़ सकता यह कब है, राज्य-मुकुट का खेला।

" कितना था वह घोर अयश-क्षण गिरि-सा मुझ परगिरता,
किसी वृन्द के खिले पुष्प पर करका घन-सा घिरता,
आकर वहाँ सुयोधन ही था, जिसने कहा ये खुल कर,
मेरे मन पर जमा भार सब बहा तुरत ही घुल कर।

" मिथ्या क्या है जन्मकथा सब, किसकी कहाँ छुपी है,
द्रोण, भीष्म या कृपाचार्य ने चुप्पी क्यों साधी है?
ब्राह्मण माँ और क्षत्रिय पिता की संतति सूत कहाए,
तो जिसकी माँ नहीं द्विजा है, वह क्या भूत कहाए?

" रोक दिया था कृपाचार्य ने आगे कुछ कहने से,
जाने कितने बह जाते, उन बातों के बहने से,
वही घाव फिर उभर गया था बातों से कृष्णा की,
भरे स्वयंवर में मेरा क्या और रहा था बाकी?

" वह अपमान भुला मैं सकता, संभव नहीं हुआ था,
देखा नहीं किसी ने लेकिन मेरा रक्त चुआ था;
समय, काल सब भर देता है ऊपर से घावों को,
लेकिन टीस रहे जो भीतर, कैसे उन भावों को?

" चट्टानांे के बीच धँसा जो बीज रहा करता है,
वही फाड़ देता है गिरि को, भू पर जा धरता है।
जाने मन की कौन गली में टीस छुपी थी बैठी,
मुझसे भी अनजान रही मेरे मन में ही ऐंठी।

" फूट पड़ी थी दावानल-सी भरी सभा में उस दिन,
फण काढ़े फुँफकार उठी थी बिल में विषधर नागिन,
लौट गया था द्रुपदराज के स्वयंवर से अनचोके,
भरी सभा से दूर कहीं मैं सूझ-बूझ को खो के.

" अब आती है सुधि मुझको, जब कृष्णा ने था देखा,
दुःशासन से भरी सभा में दुख की काली रेखा,
स्यात इसी से, हर लूँगा मैं उसकी पीड़ा सारी,
अब कहता मन, 'कहाँ गयी थी उस दिन बुद्धि तुम्हारी?'

" कितनी पीड़ा, कितनी लज्जा एक निमिष में छलकी,
झंकृत हो जाता तन-मन है, सुधि आते उस पल की;
लगता है, यह शक्ति व्यर्थ है और कवच-कुंडल भी,
दे न सका उस भरी सभा में कृष्णा को सम्बल भी।

" चेत हुआ था, तब कृष्णा को कृष्ण बचा ले निकले,
इसका कुछ अवकाश नहीं था, बुद्धि ज़रा भी सँभले।
समझेगा यह कौन भला किस मन से गुजर रहा था,
लग कर उल्कापातों से पर्वत ही बिखर रहा था।

" सब देंगे बस दोष मुझे ही नय को बिना विचारे,
टूटी होगी नाव भँवर में, नाविक खड़ा किनारे।
कुछ भी हो, इसका तो दुख है, चूक हुई है मुझसे,
साथ धर्म का दे न सका, धरती शोभित है जिससे।

" मैं अपने ही मान-हानि में उलझा रहा समय पर,
रुककर पल भर सोच न पाया लज्जा, शील, विनय पर;
यह भी भार हृदय पर अपने लेकर अब जीना है,
माहुर है, प्राणों का घातक, जिसको ही पीना है।

" क्यों लगता है, वहाँ हुआ जो उसका कारण मैं था,
दुर्योधन के कामदेव का उद्धत चारण मैं था;
जान गई होगी जब कृष्णा छिपे हुए उस छल को,
रोक लिया होगा मन में ही अपने प्रेम अमल को।

" नहीं चाहते सूतवंश की बात निकाली होगी,
मुश्किल से उसने अपनी ही देह सँभाली होगी;
समझेगा ही कौन भला यह पीड़ा मेरे मन की,
लगता लिए चला जाता हूँ सारी व्यथा भुवन की।

" कैसे-कैसे लांक्षण मुझ पर सभी लगाते आए,
जिससे कि यह कर्ण धरा पर पतित सदा कहलाए.
मैंने कहा कहाँ कृष्णा को, वह है रूपाजीवा,
जो कहता तो इसी तरह क्या सीधी होती ग्रीवा!

" वैसे भी यह ज्ञात नहीं है कुंजरपुरवासी को,
अंगदेश में छूट नहीं है शासित या शासी को;
रूपाजीवा को छोटी आँखों से कोई हेरे,
तब ऐसे में कृष्णा के हित बोल उठेंगे मेरे?

" अंगदेश में गणिका भी पूजित है देवी-सी ही,
वारस्त्राी के बिना अधूरी कथा ऋंगऋषि की ही।
लेकिन क्या इससे भी लेना, इससे अलग कहूँ मैं,
कृष्णा का दुख मेरे जैसा जिसमंे सतत बहूँ मैं।

" हाहाकार छुपा जो मन में हर्षित जग क्या जाने,
द्वैत दुखों का रंग एक है, कोई क्या पहचाने!
ऐसे में अपशब्द कहूँगा कृष्णा को ही, अति है,
भेदबुद्धि से भरे हुये के मन की वंकिम गति है। "

अभी और कुछ आगे उठते प्रश्न कर्ण के मन में,
वहाँ वृषाली आ पहुँची सखियों के संग उपवन में,
कहा, " यहाँ क्यों बैठे हो आसन चुपचाप लगाए?
राजसभा बैठी है, मंत्राी समझ नहीं कुछ पाए.

" राजकुँवर क्या समझे सब कुछ, कुछ तो समय लगेगा,
अभी तात के संरक्षण में उसका राज चलेगा,
राजकाज से इतनी जल्दी कैसे विमुख बनोगे,
ऐसा अगर हुआ तो नय का ही अपमान करोगे।

" चलो बड़ी दी बाट जोहती बैठी राजमहल में,
और यहाँ तुम योगी जैसा बैठे हो जंगल में!
जब से लौटे देश यहाँ तुम कब-कब रहे महल में,
बाहर-बाहर रहे घूमते प्रश्नों के ही हल में।

" सारी प्रजा तुम्हारी अपनी, छोड़ वृषाली को ही,
कुंजरपुर से लौटे हो तो लगते हो निर्मोही।
लगता छोड़ वहीं आए हो तुम तो अपने मन को,
सच कहना, किस चिंता में पकड़े रहते हो वन को?

" कहीं द्रौपदी की छाया तो घेरे नहीं खड़ी है?
सचमुच में इस रूपजाल की माया बहुत बड़ी है।
ले जाती है दूर दृश्य से जहाँ शून्य ही केवल,
बाँधे रहता है तन-मन को हिम-किरणों का शतदल।

" अंगराज को नहीं लुभाती अब क्या कहो, वृषाली?
दूर-दूर रहने की तुमने कैसी राह निकाली! "
सुना कर्ण ने तो वह झेंपा, लेकिन सँभल गया था,
जो कुछ उठा तुरत था मन में वह तो नया-नया था।

सब कुछ ठीक-ठाक था, उसने जब अपने को तौला,
संचारी को हटा, भाव रति को आगे कर बोलाµ
" क्या कहती हो प्रिये, वृषाली, तुम्हें चाहता जी से,
मीन विलग कैसे हो सकता, सागर, झील, नदी से!

" पुन्नु चीर तो, चानन तुम हो, तृषित कंठ मैं राही,
तुम दोनों के लिए स्वयं को ऐसा मैं पाया ही।
तुम दोनों से अलग भले था, सुधि तो साथ रही थी,
उड़ते हुए मेघ की खातिर चारो ओर मही थी।

" अब तो जी करता है जैसे छायावन में बैठे,
हारिल-सा मैं पड़ा रहूँ बस अपने पंख समेटे;
मेरे बिना वृषाली ने जो शासन-राज सँभाला,
प्रजाजनों को समझा संतति अपनांे-सा है पाला।

" उसके लिए अलग से ऋणी हूँ, हरदम ही, कल्याणी,
कभी सोचता जो एकांत में, परा ठहरती वाणी।
प्रेम तुम्हारा धरती पर संदेश स्वर्ग का लगता,
सुधि आते ही सच समाधि का योग तुरत है जगता।

" इसे बुद्धि से कैसे कोई समझे कहो, वृषाली,
जहाँ देह को ज्ञान नहीं है, वाणी निष्फल-खाली।
बैठो यहीं, वृषाली कुछ क्षण, मिले शांति इस मन को,
आज तुम्हारी आँखों में फिर देखूँ नील गगन को।

" पलकों के छायावन में स्वप्नों का रंग सजाऊँ,
फूलों के सौरभ में खोजूँ, खोज-खोज थक जाऊँ;
आओ फिर से पंख हवा के बाँध चलें तन-मन से,
चल कर बातें कर आएँ फिर ऊँचे नील गगन से! "

मुस्काई, संकेत किया सखियों की ओर नयन से
कुछ उलाहने के ही स्वर में, पुलक सँभाले मन सेµ
" और वहाँ खोजेगी दीदी; व्याकुल पहले से ही,
चलो यहाँ से राजभवन में, आओ चलंे, स्नेही!

" संध्या की अलसाई आँखें थकी-थकी-सीं बोझिल,
नहीं देखते दृश्यहीन अब किरणें भी हैं झिलमिल!
संध्या-पूजन हुआ, नहीं पर लौटे दुर्ग-महल में,
क्या होगा ऐसे बँधनें से बोलो रूप-कमल में। "

हँसी वृषाली इतना कह कर, उठी कर्ण के संग में,
आँखें दिखीं कर्ण की दोनों रंगी गुलाबी रंग में।
अब तक जो थे मौन विहग सहसा ही लगे चहकने,
फूलों के सौरभ के संग में शीतल हवा बहकने।

ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के शिखरों से शशि ने देखा,
चलते हुए बटोही दो की एक विरल-सी रेखा।
नीरवता में लगे गूँजने लहरों के सुर लय में,
स्वप्नों की साँसें बस चलतीं मन के शांत निलय में।