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"प्रथम अंक / भाग 1 / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
 
एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
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कौन श्रेष्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
 
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
 
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
 
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को।
 
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को।

18:00, 11 सितम्बर 2019 के समय का अवतरण

प्रथम अंक आरम्भ

साधारणोंsयमुभयो: प्रणयः स्मरस्य,
तप्तें तप्त्मयसा घटनाय योग्यम्।
--विक्रमोर्वशीयम

राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।
 
सूत्रधार
नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है,
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;
या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों

नटी
इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,
मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;
मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी
कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो

सूत्रधार
सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को
गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है

नटी
सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा में
समाधिस्थ संसार अचेतन बहता- सा लगता है।

सूत्रधार
स्वच्छ कौमुदी में प्रशांत जगती यों दमक रही है,
सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पण में।
शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर में
प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो ।

(ऊपर आकाश में रशनाओं और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है। बहुत- सी अप्सराएँ एक साथ नीचे उतर रही हैँ)।

नटी
शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह क्वणन- क्वणन स्वर कैसा?
अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं?
उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणें लगी लजाने;
ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायें उतर रही है?
उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई है?
उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की
नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में?
या वसंत के सपनों की तस्वीरें घूम रही है
तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?

सूत्रधार
लो, पृथ्वी पर आ पहुँची ये सुषमायें अम्बर की
उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलों के।
पद-निक्षेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की,
सजल कंठ से गीत, हँसी से फूल झरे जाते है।
तन पर भीगे हुए वसन है किरणों की जाली के,
पुश्परेण-भूशित सब के आनन यों दमक रहे है,
कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर।

नटी
फूलों की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ है?

सूत्रधार
नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ है,
ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी है,
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएँ है
देवों की रण क्लांति मदिर नयनों से हरने वाली
स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की।

नटी
पर, सुरपुर को छोड आज ये भू पर क्यों आई है?


सूत्रधार
यों ही, किरणों के तारों पर चढी हुई, क्रीड़ा में,
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है।
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कहते है, स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नहीं है।
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहो में भरने को अकुलाता है
गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित है, दोनो के
अलग-अलग है प्रश्न और है अलग-अलग पीड़ायें।
हम चाहते तोड़ कर बन्धन उड़ना मुक्त पवन में,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते है।

एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेष्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को।
किन्तु ,सुनें भी तो, ये परियाँ बातें क्या करती है?

{नटी और सूत्रधार वृक्ष की छाया में जाकर अदृश्य हो जाते है। अप्सरायें पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली और झरनों के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती है}

परियों का समवेत गान
फूलों की नाव बहाओ री, यह रात रुपहली आई।
फूटी सुधा-सलिल की धारा
डूबा नभ का कूल किनारा
सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री !
यह रात रुपहली आई।
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन में मौन मगन है।
ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री!
यह रात रुपहली आई।
मुदित चाँद की अलकें चूमो,
तारों की गलियों में घूमो,
झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढाओ री !
यह रात रुपहली आई।।
 
सहजन्या
धुली चाँदनी में शोभा मिट्टी की भी जगती है,
कभी-कभी यह धरती भी कितनी सुन्दर लगती है!
जी करता है यही रहें, हम फूलों में बस जायें!

रम्भा
दूर-दूर तक फैल रही दूबों की हरियाली है,
बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है।
जी करता है, इन शीतल बूँदों में खूब नहायें।

मेनका
आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी है,
लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी है।
जी करता है,फूलों को प्राणों का गीत सुनायें।

समवेत गान
हम गीतों के प्राण सघन,
छूम छनन छन, छूम छनन।

बजा व्योम वीणा के तार,
भरती हम नीली झंकार,
सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन।
छूम छनन छन, छूम छनन।

सपनों की सुषमा रंगीन,
कलित कल्पना पर उड्डीन,
हम फिरती है भुवन-भुवन
छूम छनन छन, छूम छनन।

हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,
भिगो भूमि-अम्बर के छोर,
बरसाती फिरती रस-कन।
छूम छनन छन, छूम छनन।