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|सारणी=कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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ॐ कार आलंबन अत्युतम, श्रेष्ठतम है, परम है,<br>
कोई अन्य आलंबन नहीं, आश्रय यही तो परम है।<br>
साधन अमोघ है ॐ जिसमें, परम प्रभु ज्ञातव्य है,<br>
मर्म जान के ॐ का, साधक को प्रभु प्राप्तव्य हैं॥ [ १७ ]<br><br>
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है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,<br>
यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।<br>
क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,<br>
आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥ [ १८ ]<br><br>
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यहाँ कोई मरता है नहीं,और न ही कोई मारता,<br>
ऐसा समझता यदि कोई वह तथ्य को नहीं जानता।<br>
इस नित्य चेतन आत्मा का जड़ अनित्य शरीर से,<br>
ना ही कोई सम्बन्ध ना ही बंधे जड़ प्राचीर से॥ [ १९ ]<br><br>
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जीवात्मा के, हृदय रूपी गुफा में, ईश्वर रहे,<br>
अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जो है, महिम से अतिशय महे।<br>
परब्रह्म की महिमा महिम, विरले को ही द्रष्टव्य है,<br>
द्रष्टव्य हो महिमा महिम की, और यही गंतव्य है॥ [ २० ]<br><br>
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सर्वत्र सब रूपों में व्यापक, प्रेम पद्म जगत्पते,<br>
महे दिव्य परम एश्वैर्मय, अभिमान शून्य महामते।<br>
आसीन पर गतिमान प्रभुवर दूर हैं पर पास हैं,<br>
उस दिव्य तत्व की दिव्यता बस धर्मराज को भास है॥ [ २१ ]<br><br>
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यह क्षणिक है क्षयमाण क्षीण है, मरण धर्मा शरीर है,<br>
सब हर्ष शोक विकार मन के, मोह के प्राचीर हैं।<br>
अति धीर जन प्रज्ञा विवेकी, शोक न किंचित करें,<br>
सर्वज्ञ ब्रह्म को जान कर, वे मोह न सिंचित करें॥ [ २२ ]<br><br>
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परब्रह्म ना ही बुद्धि ना ही वचन, श्रुति अतिरेक से,<br>
ना तर्क गर्व प्रमत्त से, अथ ना सुलभ प्रत्येक से।<br>
करते स्वयम स्वीकार जिसको, प्रभु उन्हें उपलब्ध है,<br>
जो विकल व्याकुल भक्त जिनके भक्तिमय प्रारब्ध हैं॥ [ २३ ]<br><br>
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ये बुद्धि मन और इन्द्रियों, जिसके नहीं आधीन हैं,<br>
कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।<br>
है शांत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,<br>
नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥ [ २४ ]<br><br>
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संहारकाले स्वयम मृत्यु व प्राणी जिसका भोज हों,<br>
अहम कालोअस्मि कथ, अथ का विदित क्या ओज हो।<br>
उस मृत्यु संहारक परम प्रभु को भला कैसे कोई,<br>
क्या जान पाये सृष्टि में उपजा नहीं, विरला कोई॥ [ २५ ]<br><br>
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