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प्रथम पुरूष यानी सिर्फ 'मैं' / विपिन चौधरी

जीवन की तमाम ठोकरें
'प्रथम पुरूष' के आवृत में रहकर खाने के बावजूद
इससे बाहर निकलने की ज़हमत हमने कभी नहीं उठाई
निपट नौसिखिए की तरह प्रेम मे डूबे
रिश्तों की नुकीले शाखाओं के घायल हुए
सब कुछ देखते रहे दरीचों से
परखने की कोशिश करते रहे पर प्रथम पुरुष की चौहद्दी से एक बार भी ओझल नहीं हुए
घोर स्वार्थी बन नज़रे जमाए रखीं
ख़ुद पर ही

अपने आप को मर्यादा पुरूषोतम बनने का उद्‍घोष यहीं से जारी हुआ
प्रथम पुरूष की इस बानी में कुछ बेवकूफ़ लोगों को मोहित करने में हुए कामयाब
दोस्त बनकर पीठ पर वार करना
बाहर-भीतर, भीतर-बाहर आने-जाने में
कितनी मुस्तैदी होनी चाहिए
सीखा यहींं से

कई ख़ानों मे अपना किया बँटवारा
कब दुबके रहना
कब दिखानी है अपनी मक्कारी
कब करने हैं अपने दाँत और नाख़ून तेज़
कब साधु का बाना ओढ़ घर के अन्धेरे कोने में लेनी है शरण
कैसे करनी है एक साथ डाकूपन की खुजली और ओम शान्ति का जाप

घण्टा और घड़ियाल दोनों को कब और किसके कानों के पर्दों पर दस्तक की तरह बजाना है
कब बेहद मामूली बन कर दिखाई देना है
यह लम्बा-चौडा गणित प्रथम पुरुष के बाने मे रहकर ही अर्जित किया
यहाँ प्रथम पुरुष के आवरण मे कई सुविधाएँ एक साथ भोगने का कुटिल सुख था तभी
कई नेक आत्माओ के समझाने के बावजूद
अन्ततः हमने प्रथम पुरूष के घेरे में ही जीना स्वीकार किया