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प्रथम प्रेमालाप / कविता भट्ट

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मैं नहीं मानती धरणी-शून्य
मैं नहीं मानती पाप-पुण्य
अपने ही मन के किसी अंश पर
श्रद्धा हो चली है मुझे उसी अंश पर
न जाने तुम कैसे उतरे
पूजा के इस मन-मन्दिर में मेरे
आलोक की रेखा सी कोमल
इस निविड़तम में मुस्कुराते झलमल
मेरे ईश-उपासक मन में
मेरे निरीह सूने जीवन में
कामना की हँसी-हँसी शान्त
आ बसे देवता मेर मन में मन के कान्त

हँसी खिलखिलाई मन में ही मन की
मेरी विवशता मैं हँस न सकी
छोड़कर विश्व के समस्त प्रलाप
कर गई आँखें मेरी प्रथम प्रेमालाप