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प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता / अज्ञेय

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प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता से मुग्ध हो कर दार्शनिक बोला, 'ईश्वर कैसा सर्वज्ञ है! दिवस के तुमुल और श्रम के बाद कितनी सुखद है यह सन्ध्याकालीन शान्ति!'
निश्चल और तरल वातावरण को चीरती हुई, दार्शनिक का ध्यान भंग करती हुई, न जाने कहाँ से आयी चक्रवाकी की करुण पुकार, 'प्रियतम, तुम कहाँ हो?'

1935