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|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
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:विहग सुनसान में, तरु पर, प्रभाती-गान जीवन का
:सुखद, उन्मुक्त स्वर से, एक लय में गा रहा है क्यों ?
:सितारे छिप गये सारे, अँधेरा मिट गया सत्वर,
:उषा-साम्राज्य का अनुचर दिखाई दे रहा दिनकर,
:गगन में मौन एकाकी, गयी है ज्योति पड़ फीकी,
::छिपाता मुख जगत से चाँद उड़ता जा रहा है क्यों ?:
:अलस तंद्रा भरी चुपचाप थी दुनिया अभी सोयी,
:मनुज सब स्वप्न में डूबे सचाई रूप की खोयी,
:जगा जन-जन, जगा हर मन, मुखर वातावरण प्रतिपल
::नया संदेश, जीवन जागरण-क्षण पा रहा है क्यों ?
'''रचनाकाल:1949</poem>
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