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प्रलय-संकेत / विष्णु खरे

                          कविता पूर्व कवि की टिप्पणी --
{मानव के नैतिक ह्रास के कारण अपरिहार्य, सृष्टि के अन्त के लक्षणों और पूर्वसंकेतों का जैसा वर्णन और भविष्यवचन प्राचीन भारतीय परम्परा में है, वैसा शायद और कहीं नहीं है. बाइबिल के पूर्वार्ध 'ओल्ड टेस्टामेण्ट' में जेरेमियाह नामक एक सन्त-मसीहा हैं, जिन्होंने ऐसी ही दारुण भविष्यवाणियाँ की हैं और इस तरह उनके लिए 'जेरेमियाड' शब्द प्रदान किया है, लेकिन भारतीय चेतावनियों के लिए ऐसा कोई प्रत्यय संस्कृत में नहीं मिलता और मात्र 'अपशकुन' इनके लिए अपर्याप्त है। निस्सन्देह ऐसी संकेतावलियों में हर युग और सभ्यता अपनी नैतिक अवनति और दुरावस्था का प्रतीकभास देखते आए हैं और भले ही मानव-जाति या सृष्टि का अन्त अभी न हुआ हो, महर्षि वेदव्यास विरचित 'महाभारत' में वर्णित दुर्दान्त अपशकुन, दु:स्वप्न और कुलक्षण इस इक्कीसवीं सदी में अधिक प्रासंगिक, आसन्न और अवश्यंभावी प्रतीत हो रहे हैं।
 
इस कविता को स्वीकृत, सुपरिचित अर्थों में पूर्णतः 'मौलिक' नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा अपने सुविख्यात मासिक 'कल्याण' के अगस्त १९४२ के विशेषांक के रूप में प्रकाशित महाभारत-अनुवाद 'संक्षिप्त महाभारतांक' से प्राप्त, उत्थापित, शोधित, उत्खनित, अन्वेषित तथा आविष्कृत ( प्रबुद्ध पाठक जो चाहें सो कह लें) है। कुछ अंश अवश्य प्रक्षिप्त किए गए हैं, किन्तु भगवान कृष्णद्वैपायन के विश्व-काव्य में ऐसे प्रक्षेपणों को एक आपराधिक प्रमाद ही कहा जाएगा. तब भी यह दुस्साहसिक विनम्रता में यहाँ प्रस्तुत है।}

                             प्रलय-संकेत
                  (तुभ्यमेव भगवन्तम् वेदव्यासम्)

दिवस और रात्रि में कोई अन्तर नहीं कर पाता मैं दोनों समय ऐसे दीखते हैं जैसे सूर्य चन्द्र नक्षत्रों से ज्वालाएँ उठती हों
दोनों सन्धिवेलाओं में देखता हूँ दिवाकर को घेरे हुए एक मृत शरीर जिसके सिर भुजा जँघाएँ नहीं हैं
धधकती हैं दोनों सँध्याओं की दिशाएँ
अन्तरिक्ष में टकराते हैं धूमकेतु उल्काएँ ग्रह उपग्रह तारागण क्या गरजता है यह मेघों के बिना कौन-सी विद्युत् कौंधती है रात में बरसते हैं रक्त माँस-मज्जा
नदियों के जल में लहू पीब भ्रूण बहते दीखते हैं वे अपने उद्गमों को लौटने लगती हैं कूपों तालाबों नालों से विषैले झाग उठते हैं
पर्वतों से कौन-सा भयानक नाद उठता है यह उनके शिखर और शिलाएँ रेत जैसे ध्वस्त होते हैं
सागर उफनते हैं भूकम्प से अपने तट तोड़कर धरती को डुबोते हुए
दुर्गन्ध उठती है अग्नि से
कभी आकाश में सात सूर्य एक साथ उदित होते हैं मुण्ड और कबन्ध की तरह राहु और केतु कभी जुड़ते कभी अलग दीखते हैं चन्द्र के लुप्त होने पर कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष कब परिवर्तित होते हैं ज्ञात नहीं होता
नष्ट हो गई हैं मेरी इन्द्रियों की क्षमताएँ अपनी चेतना खो चुका हूँ मैं
वन्ध्या शाखाएँ वर्णगन्धहीन अवास्तव फलों से लद गई हैं जिन पर कोई नहीं मण्डराता जिन्हें कोई नहीं खाता हरे वृक्ष ठूँठ हो जाते हैं और जलने लगते हैं
कभी भी चलने लगते हैं डरावने बवण्डर उनसे बालुका नहीं पीसी हुई हड्डियों का चूर्ण बरसता है
मध्याह्न में अमावस्या की अर्धरात्रि का अन्धकार छा जाता है
ज्येष्ठ और वैशाख में लुप्त सरिताएँ नगरों को डुबो देती हैं मरुस्थल में दिन में हिमपात होता है सरीसृपों को मारता हुआ
एक गरुड़ दीखता है जिसके माथे पर चोटी और सींग हैं उसके तीन पँजे हैं और चोंच के स्थान पर चार दाढ़ें हैं
वृक्षों पर बैठे गीध श्येन और चील शवों की घात में नीचे देखते हैं कोकिलों शुकों मयूरों चातकों के कण्ठ से लपटें और चीत्कार निकलते हैं वे ध्वजों पर बैठकर उन्हें नोचते हैं
रात में एक पक्षी मण्डराता है जिसके एक आँख एक डैना एक पँजा है और जब वह क्रुद्ध होकर बोलता है तो ऐसे कि कोई रक्त वमन करता हो
गीध घरों में घुस आते हैं और जीवित मनुष्यों का माँस नोचते हैं आतँकित जो आर्तनाद तक नहीं कर पाते
आकाश कभी भी टिड्डियों से आच्छादित हो जाता है जो प्रत्येक हरित वनस्पति और जीवित प्राणियों को खाती हैं
गर्दभों को जनती हैं गायें हाथियों को खच्चरियाँ श्वानों को शूकरियाँ
तीन सींग चार नेत्र पाँच पैर दो मूत्रेन्द्रिय दो मस्तक दो पूँछ तथा अनेक दाढ़ों वाले अकल्पनीय पशु जन्म लेते हैं और वर्णनातीत भयावह वाणी में बोलते हैं
चूहे छछून्दर गोधिकाएँ चीटे तिलचट्टे सोते हुए स्त्री-पुरुषों के नख केश उँगलियाँ कुतरकर खाते हैं और उन्हें भान नहीं होता
सियार लोमड़ियाँ और लकड़बग्घे भरी दोपहर झुण्ड बनाकर निकलते हैं और कुत्तों बिल्लियों बछड़ों का आखेट करते हैं
बन्धे हुए पशु अचानक चौंकने-बिदकने लगते हैं पसीना-पसीना हो जाते हैं उनकी आँखों से आँसू और मूत्रेन्द्रिय से रक्त बहता है
अट्टालिकाओं पूजास्थलियों वाहनों के ध्वज काँपते हैं जलने लगते हैं मानवहीन रथ चलने लगते हैं
शस्त्रों से लपटें उठती हैं
पाकशालाओं की रसोई में कीड़े बिलबिलाते दिखाई देते हैं
जो इस पृथ्वी पर कहीं दिखाई नहीं देते ऐसे भीषण प्राणियों को जन्म देती हैं स्त्रियाँ जिनमें से कुछ एक साथ चार-चार पाँच-पाँच सन्तान उत्पन्न करती हैं जो जनमते ही नाचती गाती हँसती हैं
सारी मर्यादाएँ तोड़कर समस्त नारियाँ समस्त पुरुष परस्पर सम्भोग करते हैं अहर्निश हर सम्भव पापाचार होता है
सँग्राम से पलायन करते हैं अचानक नपुँसक हो गए नवयुवक धूर्तों दस्युओं वेश्यालयों के स्वामियों का क्रीतदास बनने के लिए जिनके समक्ष स्त्रियाँ स्वेच्छा से निश्शुल्क निर्वसन होती हैं
किस निद्रा किस मूर्च्छा में चल रहा हूँ मुझे ज्ञात नहीं मैंने कब नखों केशों दूषित वस्त्रों से अशुद्ध हुआ जल पिया या उससे स्नान किया अपने सँज्ञान में मैंने नहीं किया किसी रजस्वला किसी अगम्या से सहवास मुझसे नहीं हुई कोई ब्रह्महत्या तब कैसे पराभव हुआ मेरा
मेरे पास धनुष था किन्तु उसकी प्रत्यँचा तक न चढ़ा सका मैं मेरी भुजाओं में जो बल था अब नहीं रहा सभी बाण नष्ट हो चुके मेरे तूणीर में कोई सायक नहीं अपने किसी मन्त्रपूत अस्त्र का आह्वान नहीं कर सकता मैं मेरा पराक्रम नष्ट हुआ मेरे वंश का नाश हुआ
कौन से महापातक हुए मुझसे किसी पाप किसी महासँहार को रोक न सका मैं
अश्रुतपूर्व महारोग फैलते हैं अकल्पनीय अपराध होते हैं माता पिता पुत्र पुत्री भ्रातृ भगिनी पति पत्नी परस्पर हत्याएँ करते हैं नर-माँस से कोई घृणा नहीं करता
मरीचिकाओं में दिखती है स्वर्णनगरियों कल्पवृक्षों अप्सराओं अट्टालिकाओं की अमरावती जिसकी दिशा में दौड़ते हैं नर-नारी वो फिर लौटकर नहीं आते
लोग सत्पुरुषों पूर्वजों पूज्यों हुतात्माओं से द्वेष और उनकी निंदा करते हैं आराध्य और अवतारों का ही नहीं सत्गुरुओं का तिरस्कार होता है गुरुकुलों में हत्याएँ होती हैं
बालक विकलाँग होकर नाचते-गाते अट्टहास करते हैं शस्त्रास्त्र लेकर वे मूर्तियाँ उकेरते और बनाते हैं परस्पर आक्रमण करते हैं कृत्रिम नगर बसाकर युद्ध करते हुए उन्हें वे नष्ट कर देते हैं
देवताओं की मूर्तियाँ काँपती अट्टहास करती रक्त उगलती खिन्न और ध्वस्त होती हैं आश्रम और पूजागृह धूलिसात हो जाते हैं
जब मन्त्रोच्चार और जप किया जाता है तो ऐसा सुनाई देता है जैसे कुछ मानव-समूह आक्रमण कर रहे हों किन्तु कोई दिखाई नहीं पड़ता
किन्हीं दूसरे लोकों से आए राक्षसों जैसे प्राणी धन आभूषण छत्र कवच ध्वजा सहित नगरवासियों का भक्षण करते हैं
जब पूजा-अर्चना के वाद्य बजाए जाते हैं तो सूने घरों से घोर स्वर उठते हैं
जलते हुए खण्डहर दिखाई देते हैं जिनसे दीन-हीनों अनाथों का विलाप सुनाई देता है
पुरातन यम और शाश्वत मृत्यु के स्थान पर यह कौन-सी नवीन, कैसी नूतन मृत्यु है यह जो न स्वर्ग ले जाती है और न नरक
लोग स्वप्नों में देखते हैं एक विकराल कृत्या जो अपने अस्थियों जैसे सफ़ेद दांत दिखाती हुई आई है और स्त्रियों के आभूषण लूटती हुई सारे नगर में दौड़ रही है
अपना काला और पीला सिर मुण्डाए हुए काल प्रतिदिन नगर के मार्गों पर चक्कर लगाता है भवनों प्रासादों अट्टालिकाओं उपवनों निवासियों नृपतियों को देर तक खड़ा देखता रहता है कभी दीखता है
कभी अदृश्य हो जाता है
फिर एक अट्टहास जो ब्रह्माण्ड के अन्त तक जाता गूँजता है।