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प्रवासी विवशताएँ / शमशाद इलाही अंसारी

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जैसे जैसे मेरा उससे बिछुड़ने का वक़्त
नज़दीक आ रहा था
मेरी खामोशियाँ सघन हो रही थी
शब्द, निशब्द हो रहे थे
प्रश्न निसतेज हो रहे थे
सड़क पर सूखी पत्तियों की भाँति
मेरा विश्वास बिखर रहा था
आशाएँ विरल हो चुकी थी
मै बस उसे देख रहा था, अपलक
...लगातार देखता ही जा रहा था।

मुझे याद आने वाली मेरी पहली चीख़ से,
आज इस समय तक-
मेरी हर तस्वीर
मेरे मस्तिष्क के अति-संवेदनशील
पृष्ठ-पटल पर
बार-बार दोहरा रही थी
क्योंकि मैं जानता था
मैं अपनी कोख से, मेरी पालनहार
मेरी परम जननी
अपनी माँ से अब फ़िर न मिल पाऊँगा।

मैं बचपन से अब तक
न जाने कितनी बार गिरा - चोटें लगी
मौहल्ले के लड़कों से झगड़े हुए
और न जाने कितनी बार बीमार पड़ा
लेकिन उसकी ममता का आँचल
हमेशा मेरे वुजूद से कई गुना निकला।

मैं कभी बीमार हुआ तो बस
मेरी बीमारी सारी अपने तन पर ले लेती
वैद जी की दवाएँ देती
थोड़ी़ बहुत अपनी भी देती
कथाओं के कंगन मुझे पहनाती
लोरियों का चंदन लगाती
गीतों की मालाओं से मुझे सजाती तब तक,
जब तक मैं सो न जाता।

और फ़िर भी वह ख़ु़द न सोती
मुझे सोते हुए देखती रहती, निहारती रहती
रात भर... बुनती रहती मेरे बडे़ होने के सपने...
मैं एसी अनगिनत रातों का ऋणी हूँ
और जीवन पर्यन्त ऋणी ही रहूंगा
और शायद कृत्तघ्न भी
क्योंकि मेरी माँ ने मुझे
बीच राह में, कभी नहीं छोड़ा था
हमेशा पार लगाया था मुझे।

अंतिम विदा के क्षण
पाँव छूते समय
मेरा कलेजा मेरे मुँह में आ गया था।
माँ मुझे क्षमा करना... बस यह ही कह पाया।

और मुझे विश्वास है, वह मेरा कहा
यह भी मान लेगी।
घर वापस लौटते हए
गुज़रा समय कैसे बीत गया
ये सोचता रहा
देखता रहा अतीत की अपनी रोशन दुनिया
बुन लेता एक तिलिस्म,
जो इस मातमी वर्तमान के
ठोस धरातल से
टकरा कर हो जाता चूर चूर

और फ़िर हो जाता मैं व्यस्त
उन कण-कण को उठाने-जोड़ने की
प्रक्रिया में।

मेरे प्रश्नों
मेरी विवश्ताओं के घाव
मुझे जीवन भर सालते रहेंगे
चाहे तुम्हे यह सब
दिखे न दिखे।



रचनाकाल : 07.02.2003