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प्रस्तावना/ मनोज श्रीवास्तव


प्रस्तावना

हिन्दी कविता के बहु-परिवर्तनकारी दौर में अर्थात वर्ष १९४० के बाद से, विविध प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियों के कारण अधिकाँश कवितायेँ शनै: शनै: अंतर्मुखी, व्यक्तिपरक, रहस्यमयी, आत्मप्रवंचनात्मक और स्वांत: सुखाय होती गईं. बेशक सातवें दशक तक, कविताओं में बोधात्मकता बनी हुई थी और पाठक उनके पठन-पाठन से उतना उचाट नहीं हुआ था, जितना उसके बाद से होने लगा. कविताओं में गुप्त अनुभूतियों और नितांत व्यक्तिगत अनुभवों के अंत:पाक के चलते यह कहना जायज लगता है कि अभिव्यक्तियाँ साधारणीकृत नहीं रहीं. कविताओं में उनकी जाती जिन्दगी के संघर्षों, इसके बेहतरीकरण के लिए स्पर्धाओं और द्वंद्वों तथा सुख-सुविधाओं को हासिल करने की उनकी ज़द्दोज़हद से उद्भूत उनकी पीड़ाओं को एकदम गौड़ बना दिया है. प्रकारांतर से, वे अपनी पीड़ा को पर-पीड़ा से अधिक भारी और दुर्वह मानने लगे हैं. अब वह ज़माना नहीं रहा जबकि कवि रचनाकर्म में प्रवृत्त होने से पहले, पीड़ित आदमी में खुद को समोकर या दूसरे शब्दों में, अपने व्यक्तित्त्व को पीड़ित व्यक्ति में ट्रांसमीग्रेट करके उसकी ज़िंदगी को झेलने या वास्तव में उसे समझने के कोशिश करता था. इसके अतिरिक्त, वह अपने भोगे हुए अहसासों को आम आदमी के अहसासों से तौलता था और यह निष्कर्ष निकालता था कि दोनों में से किसके अहसास ज़्यादा गहरे हैं जिन्हें रचनाओं में जगह दी जानी चाहिए.

कविता को नितांत निजता से बांधकर उसे अलपताप निरर्थक प्रयोगों से इतना जटिल बन दिया गया है कि पाठक उसे पढ़कर उसमें आवेष्टित व्यर्थ प्रयोगों पर विचार करने और समग्र कविता के निहिताशय को समझ पाने की जहमत उठने से पहले वह उसे कूड़ेदान में फेंक देना श्रेयष्कर समझता है. नि:संदेह, कवियों को अपनी रचनाओं के इस हश्र को भलीभांति समझना चाहिए. हां, यह अनिवार्यत: समझना होगा; अन्यथा, समूची कविता विधा को अवर्णनीय तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा. उसे मनुवादी या ब्राह्मणवादी होने के लांछनों से लज्जित होना पड़ेगा. लज्जित होकर साहित्य के किसी नितांत अरण्य में जाकर अपना मुंह छिपाना पड़ेगा. अपने अलोकप्रिय होने के गम में उसे कालापानी भोगना पड़ेगा जिसे खुद उसके पिता (कवि) ने दिया है.