भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रारब्‍ध थे तुम / रश्मि शर्मा

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:59, 7 अक्टूबर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


प्रारब्‍ध थे तुम
आना ही था एक दि‍न
जीवन में
सारी दुनि‍या से अलग होकर
मेरे हो जाना
और मुझको अपना लेना

प्‍यार यूं आया
जैसे बरसों तक हरि‍याए दि‍खते
बांस के पौधों पर
फूल खि‍ल आए अनगि‍नत
सफ़ेद -शफ़्फ़ाक
अब इनकी नि‍यति‍ है
समाप्‍त हो जाना

मृत्‍यु का करता है वरण
बांस पर खि‍लता फूल
ठीक वैसे ही फूल हो तुम
मेरी जिंदगी के
और मैं बरसों से खड़ी
हरि‍याई 'बांस-श्‍लाका'
तुम्‍हारा मि‍लना ही
अंति‍म गति‍ है मेरी।