भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिये! तुम्हारा ऋणी रहूंगा / त्रिलोक सिंह ठकुरेला

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:03, 9 सितम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोक सिंह ठकुरेला |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

युगों युगों तक मैं तन मन से प्रिये! तुम्हारा ऋणी रहूँगा
तुम जीवन सरिता सी कल कल,
सरसातीं मेरा मन पल पल,
बिना तुम्हारे कितना बेकल,
साथ तुम्हारी ही धारा के जीवन भर अनवरत बहूँगा

मिलते पथ, वन, शिला, गुफाएँ,
जगतीं मन में नव-आशाएँ,
दृश्य भले मन को ललचायें,
बंधा तुम्हारी प्रेम-डोर से जित जाओगी, राह गहूँगा

माना हो जाती है खट -पट,
किन्तु सुलह भी होती झटपट,
फिर आगे बढ़ते पग ख़ट -ख़ट,
इसे प्यार के लिए जरूरी एक नया आयाम कहूँगा

जीवन की बगिया में हिलमिल,
महकेंगे हम साथ साथ खिल,
दूर कहाँ कोई भी मंजिल,
नियत कहाँ कुछ भी जीवन में, सुख-दुःख मिलकर साथ सहूँगा