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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ४

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किसी घने-पल्लववान-पेड़ की।
प्रगाढ़-छाया अथवा सुकुंज में।
अनेक प्राणी करते व्यतीत थे।
स-व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त-काल को॥61॥

अचेत सा निद्रित हो स्व-गेह में।
पड़ा हुआ मानव का समूह था।
न जा रहा था जन एक भी कहीं।
अपार निस्तब्ध समस्त-ग्राम था॥62॥

स्व-शावकों साथ स्वकीय-नीड़ में।
अबोल हो के खग-वृंद था पड़ा।
स-भीत मानो बन दीर्घ दाघ से।
नहीं गिरा भी तजती स्व-गेह थी॥63॥

सु-कुंज में या वर-वृक्ष के तले।
असक्त हो थे पशु पंगु से पडे।
प्रतप्त-भू में गमनाभिशंकया।
पदांक को थी गति त्याग के भगी॥64॥

प्रचंड लू थी अति-तीव्र घाम था।
मुहुर्मुहु: गर्जन था समीर का।
विलुप्त हो सर्व-प्रभाव-अन्य का।
निदाघ का एक अखंड-राज्य था॥65॥

अनेक गो-पालक वत्स धेनू ले।
बिता रहे थे बहु शान्ति-भाव से।
मुकुन्द ऐसे अ-मनोज्ञ-काल को।
वनस्थिता-एक-विराम कुंज में॥66॥

परंतु प्यारी यह शान्ति श्याम की।
विनष्ट औ भंग हुई तुरन्त ही।
अचिन्त्य-दूरागत-भूरि-शब्द से।
अजस्र जो था अति घोर हो रहा॥67॥

पुन: पुन: कान लगा-लगा सुना।
ब्रजेन्द्र ने उत्थित घोर-शब्द को।
अत: उन्हें ज्ञात तुरन्त हो गया।
प्रचंड दावा वन-मध्य है लगी॥68॥

गये उसी ओर अनेक-गोप थे।
गवादि ले के कुछ-काल-पूर्व ही।
हुई इसी से निज बंधु-वर्ग की।
अपार चिन्ता ब्रज-व्योम-चंद्र को॥69॥

अत: बिना ध्यान किये प्रचंडता।
निदाघ की पूषण की समीर की।
ब्रजेन्द्र दौड़े तज शान्ति-कुंज को।
सु-साहसी गोप समूह संग ले॥70॥

निकुंज से बाहर श्याम ज्यों कढ़े।
उन्हें महा पर्वत धूमपुंज का।
दिखा पड़ा दक्षिण ओर सामने।
मलीन जो था करता दिगन्त को॥71॥

अभी गये वे कुछ दूर मात्र थे।
लगीं दिखाने लपटें भयावनी।
वनस्थली बीच प्रदीप्त-वह्नि की।
मुहुर्मुहु: व्योम-दिगन्त-व्यापिनी॥72॥

प्रवाहिता उध्दत तीव्र वायु से।
विधूनिता हो लपटें दवाग्नि की।
नितान्त ही थीं बनती भयंकरी।
प्रचंड - दावा - प्रलयंकरी - समा॥73॥

अनन्त थे पादप दग्ध हो रहे।
असंख्य गाठें फटतीं स-शब्द थीं।
विशेषत: वंश-अपार वृक्ष की।
बनी महा-शब्दित थी वनस्थली॥74॥

अपार पक्षी पशु त्रस्त हो महा।
स-व्यग्रता थे सब ओर दौड़ते।
नितान्त हो भीत सरीसृपादि भी।
बने महा-व्याकुल भाग थे रहे॥75॥

समीप जा के बलभद्र-बंधु ने।
वहाँ महा-भीषण-काण्ड जो लखा।
प्रवीर है कौन त्रि-लोक मध्य जो।
स्व-नेत्र से देख उसे न काँपता॥76॥

प्रचंडता में रवि की दवाग्नि की।
दुरन्तता थी अति ही विवर्ध्दिता।
प्रतीति होती उसको विलोक के।
विदग्ध होगी ब्रज की वसुंधरा॥77॥

पहाड़ से पादप तूल पुंज से।
स-मूल होते पल मध्य भस्म थे।
बडे-बड़े प्रस्तर खंड वह्नि से।
तुरन्त होते तृण-तुल्य दग्ध थे॥78॥

अनेक पक्षी उड़ व्योम-मध्य भी।
न त्राण थे पा सकते शिखाग्नि से।
सहस्रश: थे पशु प्राण त्यागते।
पतंग के तुल्य पलायनेच्छु हो॥79॥

जला किसी का पग पूँछ आदि था।
पड़ा किसी का जलता शरीर था।
जले अनेकों जलते असंख्य थे।
दिगन्त था आर्त-निनाद से भरा॥80॥