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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - १

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द्रुतविलम्बित छन्द

विशद-गोकुल-ग्राम समीप ही।
बहु-बसे यक सुन्दर-ग्राम में।
स्वपरिवार समेत उपेन्द्र से।
निवसते वृषभानु-नरेश थे॥1॥

        यह प्रतिष्ठित-गोप सुमेर थे।
        अधिक-आदृत थे नृप-नन्द से।
        ब्रज-धरा इनके धन-मन से।
        अवनि में अति-गौरविता रही॥2॥

यक सुता उनकी अति-दिव्य थी।
रमणि-वृन्द-शिरोमणि राधिका।
सुयश-सौरभ से जिनके सदा।
ब्रज-धरा बहु-सौरभवान थी॥3॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय-कलिका राकेन्दु-विम्बनना।
तन्वंगी कल-हासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला पुत्तली।
शोभा-वारिधि की अमूल्य-मणि सी लावण्य लीला मयी।
श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मुर्ति थीं॥4॥

        फूले कंज-समान मंजु-दृगता थी मत्त कारिणी।
        सोने सी कमनीय-कान्ति तन की थी दृष्टि-उन्मेषिनी।
        राधा की मुसकान की 'मधुरता थी मुग्धता-मुर्ति सी।
        काली-कुंचित-लम्बमान-अलकें थीं मानसोन्मादिनी॥5॥

नाना-भाव-विभाव-हाव-कुशला आमोद आपूरिता।
लीला-लोल-कटाक्ष-पात-निपुणा भ्रूभंगिमा-पंडिता।
वादित्रादि समोद-वादन-परा आभूषणाभूषिता।
राधा थीं सुमुखी विशाल-नयना आनन्द-आन्दोलिता॥6॥

        लाली थी करती सरोज-पग की भूपृष्ठ को भूषिता।
        विम्बा विद्रुम को अकान्त करती थी रक्तता ओष्ठ की।
        हर्षोत्फुल्ल-मुखारविन्द-गरिमा सौंदर्य्यआधार थी।
        राधा की कमनीय कान्त छवि थी कामांगना मोहिनी॥7॥

सद्वस्त्रा-सदलंकृकृता गुणयुता-सर्वत्र सम्मानिता।
रोगी वृध्द जनोपकारनिरता सच्छास्त्रा चिन्तापरा।
सद्भावातिरता अनन्य-हृदया-सत्प्रेम-संपोषिका।
राधा थीं सुमना प्रसन्नवदना स्त्रीजाति-रत्नोपमा॥8॥

द्रुतविलम्बित छन्द

यह विचित्र-सुता वृषभानु की।
ब्रज-विभूषण में अनुरक्त थी।
सहृदया यह सुन्दर-बालिका।
परम-कृष्ण-समर्पित-चित्त थी॥9॥

        ब्रज-धराधिप औ वृषभानु में।
        अतुलनीय परस्पर-प्रीति थी।
        इसलिए उनका परिवार भी।
        बहु परस्पर प्रेम-निबध्द था॥10॥

जब नितान्त-अबोध मुकुन्द थे।
विलसते जब केवल अंक में।
वह तभी वृषभानु निकेत में।
अति समादर साथ गृहीत थे॥11॥

        छविवती-दुहिता वृषभानु की।
        निपट थी जिस काल पयोमुखी।
        वह तभी ब्रज-भूप कुटुम्ब की।
        परम-कौतुक-पुत्तलिका रही॥12॥

यह अलौकिक-बालक-बालिका।
जब हुए कल-क्रीड़न-योग्य थे।
परम-तन्मय हो बहु प्रेम से।
तब परस्पर थे मिल खेलते॥13॥

        कलित-क्रीड़न से इनके कभी।
        ललित हो उठता गृह-नन्द का।
        उमड़ सी पड़ती छवि थी कभी।
        वर-निकेतन में वृषभानु के॥14॥

जब कभी काल-क्रीड़न-सूत्र से।
चरण-नूपुर औ कटि-किंकिणी।
सदन में बजती अति-मंजु थी।
किलकती तब थी कल-वादिता॥15॥

        युगल का वय साथ सनेह भी।
        निपट-नीरवता सह था बढ़ा।
        फिर यही वर-बाल सनेह ही।
        प्रणय में परिवर्तित था हुआ॥16॥

बलवती कुछ थी इतनी हुई।
कुँवरि-प्रेम-लता उर-भूमि में।
शयन भोजन क्या, सब काल ही।
वह बनी रहती छवि-मत्त थी॥17॥

        वचन की रचना रस से भरी।
        प्रिय मुखांबुज की रमणीयता।
        उतरती न कभी चित से रही।
        सरलता, अतिप्रीति सुशीलता॥18॥

मधुपुरी बलवीर प्रयाण के।
हृदय-शैल-स्वरूप प्रसंग से।
न उबरी यह बेलि विनोद की।
विधि अहो भवदीय विडम्बना॥19॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

काले कुत्सित कीट का कुसुम में कोई नहीं काम था।
काँटे से कमनीय कंज कृति में क्या है न कोई कमी।
पोरों में अब ईख की विपुलता है ग्रंथियों की भली।
हा! दुर्दैव प्रगल्भते! अपटुता तूने कहाँ की नहीं॥20॥