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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ७

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सानन्द सर्व-दल कानन-मध्य फैला।
होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना।
देने लगा उर कभी नवला-लता को।
गाने लगा कलित-कीर्ति कभी कला की॥121॥

आभा-अलौकिक दिखा निज-वल्लभा को।
पीछे कला-कर-मुखी कहता उसे था।
तो भी तिरस्कृत हुए छवि-गर्विता से।
होता प्रफुल्ल तम था दल-भावुकों का॥122॥

जा कूल स्वच्छ-सर के नलिनी दलों में।
आबध्द देख दृग से अलि-दारु-वेधी।
उत्फुल्ल हो समझता अवधरता था।
उद्दाम-प्रेम-महिमा दल-प्रेमिकों का॥123॥

विच्छिन्न हो स्व-दल से बहु-गोपिकायें।
स्वच्छन्द थीं विचरती रुचिर-स्थलों में।
या बैठ चन्द्र-कर-धौत-धरातलों में।
वे थीं स-मोद करती मधु-सिक्त बातें॥124॥

कोई प्रफुल्ल-लतिका कर से हिला के।
वर्षा-प्रसून चय की कर मुग्ध होता।
कोई स-पल्लव स-पुष्प मनोज्ञ-शाखा।
था प्रेम साथ रखता कर में प्रिया के॥125॥

आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली में।
बातें बड़ी-सरस थे सबको सुनाते।
हो भाव-मत्त-स्वर में मृदुता मिला के।
या थे महा-मधु-मयी-मुरली बजाते॥126॥

आलोक-उज्ज्वल दिखा गिरि-शृंग-माला।
थे यों मुकुन्द कहते छवि-दर्शकों से।
देखो गिरीन्द्र-शिर पै महती-प्रभा का।
है चन्द्र-कान्त-मणि-मण्डित-क्रीट कैसा॥127॥

धारा-मयी अमल श्यामल-अर्कजा में।
प्राय: स-तारक विलोक मयंक-छाया।
थे सोचते खचित-रत्न असेत शाटी।
है पैन्ह ली प्रमुदिता वन-भू-वधू ने॥128॥

ज्योतिर्मयी-विकसिता-हसिता लता को।
लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के।
थे भाखते पति-रता-अवलम्बिता का।
कैसा प्रमोदमय जीवन है दिखाता॥129॥

आलोक से लसित पादप-वृन्द नीचे।
छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के।
थे यों मुकुन्द कहते मलिनान्तरों का।
है बाह्य रूप बहु-उज्ज्वल दृष्टि आता॥130॥

ऐसे मनोरम-प्रभामय-काल में भी।
म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को।
थे यों ब्रजेन्दु कहते कुल-कामिनी को।
स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता॥131॥

फूले हुए कुमुद देख सरोवरों में।
माधो सु-उक्ति यह थे सबको सुनाते।
उत्कर्ष देख निज अंक-पले-शशी का।
है वारि-राशि कुमुदों मिष हृष्ट होता॥132॥

फैली विलोक सब ओर मयंक-आभा।
आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी।
है कीर्ति, भू ककुभ में अति-कान्त छाई।
प्रत्येक धूलि-कणरंजन-कारिणी की॥133॥

फूलों दलों पर विराजित ओस-बूँदें।
जो श्याम को दमकती द्युति से दिखातीं।
तो वे समोद कहते वन-देवियों ने।
की है कला पर निछावर-मंजु-मुक्ता॥134॥

आपाद-मस्तक खिले कमनीय पौधो।
जो देखते मुदित होकर तो बताते।
होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से।
फूले नहीं नवल-पादप हैं समाते॥135॥

यों थे कलाकर दिखा कहते बिहारी।
है स्वर्ण-मेरु यह मंजुलता-धारा का।
है कल्प-पादप मनोहरताटवी का।
आनन्द-अंबुधि महामणि है मृगांक॥136॥

है ज्योति-आकर पयोनिधि है सुधा का।
शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का।
है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा।
सर्वस्व है परम-रूपवती कला का॥137॥

जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी।
वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी।
जैसी बही रससरी इस शर्वरी में।
वैसी कभी न ब्रज-भूतल में बही थी॥138॥

जैसी बजी 'मधुर-बीन मृदंग-वंशी।
जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना।
जैसा बँधा इस महा-निशि में समाँ था।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥139॥

न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी।
वंशी-निनाद मन दे जिसने सुना है।
देखा विहार जिसने इस यामिनी में।
कैसे मुकुन्द उसके उर से कढ़ेंगे॥140॥