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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - १

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वंशस्थ छन्द

विशाल-वृन्दावन भव्य-अंक में।
रही धरा एक अतीव-उर्वरा।
नितान्त-रम्या तृण-राजि-संकुला।
प्रसादिनी प्राणि-समूह दृष्टि की॥1॥

कहीं-कहीं थे विकसे प्रसून भी।
उसे बनाते रमणीय जो रहे।
हरीतिमा में तृण-राजि-मंजु की।
बड़ी छटा थी सित-रक्त-पुष्प की॥2॥

विलोक शोभा उसकी समुत्तमा।
समोद होती यह कान्त-कल्पना।
सजा-बिछौना हरिताभ है बिछा।
वनस्थली बीच विचित्र-वस्त्र का॥3॥

स-चारुता हो कर भूरि-रंजिता।
सु-श्वेतता रक्तिमता-विभूति से।
विराजती है अथवा हरीतिमा।
स्वकीय-वैचित्रय विकाश के लिए॥4॥

विलोकनीया इस मंजु-भूमि में।
जहाँ तहाँ पादप थे हरे-भरे।
अपूर्व-छाया जिनके सु-पत्र की।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी॥5॥

कहीं-कहीं था विमलाम्बु भी भरा।
सुधा समासादित संत-चित्त सा।
विचित्र-क्रीड़ा जिसके सु-अंक में।
अनेक-पक्षी करते स-मत्स्य थे॥6॥

इसी धरा में बहु-वत्स वृन्द ले।
अनेक-गायें चरती समोद थीं।
अनेक बैठी वट-वृक्ष के तले।
शनै: शनै: थीं करती जुगालियाँ॥7॥

स-गर्व गंभीर-निनाद को सुना।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते।
विमोहिता धेनू-समूह को बना।
स्व-गात की पीवरता प्रभाव से॥8॥

बड़े-सधे-गोप-कुमार सैकड़ों।
गवादि के रक्षण में प्रवृत्त थे।
बजा रहे थे कितने विषाण को।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का॥9॥

कई अनूठे-फल तोड़-तोड़ खा।
विनोदिता थे रसना बना रहे।
कई किसी सुन्दर-वृक्ष के तले।
स-बन्धु बैठे करते प्रमोद थे॥10॥

इसी घड़ी कानन-कुंज देखते।
वहाँ पधारे बलवीर-बन्धु भी।
विलोक आता उनको सुखी बनी।
प्रफुल्लिता गोपकुमार-मण्डली॥11॥

बिठा बड़े-आदर-भाव से उन्हें।
सभी लगे माधव-वृत्त पूछने।
बड़े-सुधी ऊद्धव भी प्रसन्न हो।
लगे सुनाने ब्रज-देव की कथा॥12॥

मुकुन्द की लोक-ललाम-कीर्ति को।
सुना सबों ने पहले विमुग्ध हो।
पुन: बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने।
व्यथा बढ़े यों हरि-बंधु से कहा॥13॥

मुकुन्द चाहे वसुदेव-पुत्र हों।
कुमार होवें अथवा ब्रजेश के।
बिके उन्हीं के कर सर्व-गोप हैं।
बसे हुए हैं मन प्राण में वही॥14॥

अहो यही है ब्रज-भूमि जानती।
ब्रजेश्वरी हैं जननी मुकुन्द की।
परन्तु तो भी ब्रज-प्राण हैं वही।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा॥15॥

मुकुन्द चाहे यदु-वंश के बनें।
सदा रहें या वह गोप-वंश के।
न तो सकेंगे ब्रज-भूमि भूल वे।
न भूल देगी ब्रज-मेदिनी उन्हें॥16॥

वरंच न्यारी उनकी गुणावली।
बता रही है यह, तत्तव तुल्य ही।
न एक का किन्तु मनुष्य-मात्र का।
समान है स्वत्व मुकुन्द-देव में॥17॥

बिना विलोके मुख-चन्द श्याम का।
अवश्य है भू ब्रज की विषादिता।
परन्तु सो है अधिकांश-पीड़िता।
न लौटने से बलदेव-बंधु के॥18॥

दयालुता-सज्जनता-सुशीलता।
बढ़ी हुई है घनश्याम मुर्ति की।
द्वि-दंड भी वे मथुरा न बैठते।
न फैलता व्यर्थ प्रपंच-जाल जो॥19॥

सदा बुरा हो उस कूट-नीति का।
जले महापावक में प्रपंच सो।
मनुष्य लोकोत्तर-श्याम सा जिन्हें।
सका नहीं रोक अकान्त कृत्य से॥20॥